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Sunday, January 25, 2009

ब्रिटिश भरोसे कें लायक नहीं

ब्रिटिश भरोसे कें लायक नहीं सरकार ने ब्रिटिश विदेश सचिव मिलीबैंड का अध्याय बुधवार को समाप्त कर दिया, लेकिन タया कूञ्टनीति में यह अध्याय बंद हो सकता है। सरकार की थोड़ी मजबूरी थी इसलिये उसने ऐसा कहा, लेकिन भारत की जनता और इतिहास इसका उार तो खोजेंगे कि आखिर मिलीबैंड ने ऐसा タयों कहा? उसकेञ् 'नासमझी भरे' बयान का कारण タया था? किन कारणों से लाचार मिलीबैंड ने मुミबई केञ् हमले केञ् कारण को कश्मीर से जोड़ने की कोशिश की, जबकि किसी कश्मीरी आतंकी गिरोह ने भी ऐसा नहीं कहा। タया मिलीबैंड को यह नहीं समझ में आया कि मुミबई केञ् हमलावरों ने जिन देशों केञ् नागरिकों को मारा है उन देशों ने अफगानिस्तान में नाटो सेना का साथ दिया है। इस हमले का कश्मीर अथवा भारत केञ् मुसलमानों की शिकायतों से कोई लेना देना नहीं था। मिलीबैंड का बयान उन लोगों केञ् लिये हैरतअंगेज था जिन लोगों को इंग्लैंड में ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों और अधिकृञ्त कश्मीर केञ् मीरपुरी समुदाय में सांठ गांठ का इतिहास नहीं मालूम और जिन्हें यह भी नहीं मालूम है कि मीरपुरी लेबर पार्टी केञ् वोट बैंक हैं। अफगानिस्तान और पाकिस्तान केञ् बाद इंग्लैंड आतंकियों का सबसे बड़ा शरण स्थल है। सिख उग्रवादियों ने वहां पनाह ले रखी थी। श्रीलंकाई तमिल और चेचेन, मीरपुरी, हिजबुल, अल मुहाजिरों इत्यादि न जाने कई आतंकी संगठनों केञ् अनगिनत 'स्लीपिंग सेल्स' हैं। उनकी तादाद का अनुमान ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों को भी नहीं है। चूंकि अल कायदा को पाकिस्तानी प्रोत्साहन मिलता है इसलिये जरूञ्री है कि पाकिस्तानियों केञ् इंग्लैंड या अमरीका में घुसने की फितरत का विश्लेषण किया जाय। इंग्लैंड या अमरीका जाने वाले मुस्लिम समूहों में सबसे बड़ा समूह पाकिस्तानियों का होता है। इसकेञ् बाद नミबर आता है भारत और बंगलादेशी समुदायों का। एक अनुमान केञ् अनुसार केञ्वल इंग्लैंड में पाकिस्तानी मूल केञ् स्त्र लाख मुस्लिम हैं, इनमें सबसे बड़ी संチया पाकिस्तान केञ् पंजाब सूबे केञ् मुसलमानों की है और उसकेञ् बाद अधिकृञ्त कश्मीर केञ् मुसलमानों की है। ये लोग मूल कश्मीरी नहीं हैं बल्कि पंजाब केञ् ही हैं पर पीढि़यों से अधिकृञ्त कश्मीर में जा बसे हैं। ये कोई अमीर लोग नहीं हैं। मंगला डैम बनने केञ् बाद जब उनकेञ् रोजगार छिन गये तो वे यूरोप की ओर रवाना हो गये तथा बड़ी संチया में पश्चिमी इंग्लैंड में जा बसे। उनकेञ् वहां जाने का कारण था कि वहां पहले से पंजाबी भाषी मुसलमान रह रहे थे। अमरीका में इनकी संチया タया है नहीं मालूम। जब इंग्लैंड में इनकी संチया बढ़ी तो मस्जिदें बनीं। शुरूञ् में तो इन मस्जिदों पर बरेलवियों का कホजा था। वे थोड़े उदार थे। क्ऽस्त्रस्त्र में पाकिस्तान में जिया उल हक साा में आये। वे कट्टस्न्र देवबंदी थे और वहां केञ् मस्जिदों में देवबंदियों का बाहुल्य होने लगा। चूंकि यहां से अफगानिस्तान में सोवियत संघ केञ् खिलाफ लड़ने केञ् लिये लोग जाते थे अतएव ब्रिटिश खुफिया एजेंसियां कुञ्छ नहीं बोलती थीं। सोवियत संघ का टंटा खत्म होने केञ् बाद कोसोवो में लड़ने लगे। धीरे- धीरे इनकी बर्बरता बढ़ती गयी और जब तक ब्रिटिश खुफिया एजेंसियां समझें तब तक ये काबू से बाहर हो गये। आज निर्दोष ब्रिटिश नागरिक अपने देश केञ् अफसरों और नेताओं की गैरजिミमेदारी का खामियाजा भुगत रहे हैं। जब भारत केञ् खिलाफ जेहादी आतंकवाद शुरूञ् हुआ तब तक वे ब्रिटेन में एक मजबूत वोट बैंक बन चुकेञ् थे और भारत संबंधी अंग्रेजी नीतियों को प्रभावित करने लगे। जेहादियों और पाकिस्तानी आतंकियों केञ् खिलाफ नहीं बोलने का मिलीबैंड का यही कारण था। उधर उनकी प्रतिक्रिञ्या पर जब भारत सरकार भड़की तो ब्रिटेन ने समझाया कि उसे (भारत को) सहयोग दिया जा रहा है और वह विरोध कर रही है यह कूञ्टनीति केञ् खिलाफ है। मौका मिलते ही भारत सरकार ने इस पर पटाक्षेप कर दिया। उधर भारत सरकार का यह कदम नैतिक रूञ्प से आतंकी संगठनों का अंतरराष्टस्न््रीय समुदाय द्वारा समर्थन है। अतएव भारत को सावधान रहना होगा। पाकिस्तान बंटवाने वाले ये अंग्रेज भारत केञ् पक्ष में कभी सोचेंगे भी कहीं।

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