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Sunday, March 1, 2009

बं‍गलादेश में अपशकुन

बंगलादेश रायफल्स के बागी जवानों ने अपने मुख्‍यालय में तैनात फौजी अफसरों का बड़े पैमाने पर कत्ल किया है। शनिवार को तीन सामूहिक कब्रें मिलने के बाद दुनिया के हर आदमी का मन बागियों के प्रति घृणा से भर गया। बी डी आर के जवानों की यह बगावत प्रधानमंत्री हसीना वाजेद के लिए अपशकुन की तरह है। फिलहाल तो दयनीय कार्य, शर्तें और अन्य मांगों से जुड़ा यह विद्रोह राजनीतिक नेतृत्व को अपना निशाना नहीं बना रहा है। इनके निशाने पर अभी मुख्‍यालय में तैनात फौजी अफसर ही हैं। बीडीआर के वरिष्ठ अफसर दरअसल फौज से प्रतिनियुक्ति पर आये हैं और उनके वेतन और भत्‍ते वही हैं जो फौज में लागू हैं न कि वे हैं जो बी डी आर में लागू हैं। अब जिन बी डी आर अफसरों की सीधे उच्च पदों पर बहाली हुई है उनका मानना है कि ये फौजी अफसर उनके साथ सौतेला व्यवहार कर रहे हैं। विद्रोह जिस तरह भड़का और फैला उसने राजनीतिक नेतृत्व और फौजी तंत्र को हक्का बक्का कर दिया। यह पूरा ऑपरेशन बड़े ही सुनियोजित ढंग से हुआ। इसने बंगलादेश की खुफिया एजेंसियों को सकते में डाल दिया। सच तो यह है कि बी डी आर के कनिष्ठ अफसर इतनी बड़ी योजना बना सके और उसे सफलतापूर्वक लागू कर सके तथा किसी को कानोंकान खबर ना हो सकी। यहां तक कि इस घटना ने एकदम ग्रासरूट स्तर के राजनीतिक अफसरों तक को आश्चर्य में डाल दिया। यह विद्रोह जितनी सफाई और सुनियोजित ढंग से हुआ उससे एक बुनियादी सवाल उठता है कि 'क्‍या यह आंदोलन केवल खाद्य और वर्तमान सेवा शर्तों के लिए किया गया था।' नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं क्‍योंकि बी डी आर में अधिकांश जवानों में वही लोग शामिल हैं जो बेरोजगारी और अपमान सहने वाले गरीब बैकग्राउंड के हैं। ये ऐसी मामूली मांगों के लिए ऐसे आंदोलन नहीं करेंगे। बंगलादेश में पिछले दिनों हुए चुनावों में जिस प्रकार शेख हसीना वाजेद की पार्टी को जबर्दस्त समर्थन मिला है उससे इस देश की कठमुल्लापंथी और रूढीवादी ताकतों के हौसले पस्त हो चुके हैं। ये ताकतें इस देश में स्वच्छंद और उदार लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ हैं। बंगलादेश अपनी आजादी के बाद से जिस तरह सैनिक शासन के अन्तर्गत आया था वह भी स्वयं में कम हैरतंगेज घटना नहीं थी, क्‍योंकि पूर्‌व में शेख मुजीबुर्रहमान के पूरे परिवार की नृशंस हत्या कर दी गयी थी। केवल शेख हसीना ही बच पायी थीं, मगर बंगलादेश में सन्‌ ७१ में इसके पाकिस्तानी जबड़ों से बाहर होने के बावजूद यहां तैनात बहुत से पाकिस्तानी सैनिकों और अफसरों ने खुद को बंगलादेश की नवनिर्मित सेना में ऊचे ओहदों पर बैठा लिया था। बेशक ये सैनिक अफसर बंगाली ही थे मगर इनके दिलो-दिमाग में पुराने पाकिस्तान के फौजी निजाम के नक्‍शे जमे हुए थे। यही वजह है कि बंगलादेश में बीच-बीच में जनरल जियाउर्रहमान की बेवा बेगम खालिदा जिया की पार्टी भी हुकूमत संभालती रही है। जनरल जियाउर्रहमान ने बंगलादेश पर कई साल तक फौजी हुकूमत रखी थी। बंगलादेश राइफल्स के मौजूदा विद्रोह को हमें इसी रोशनी में देखना होगा। इसमें केवल इस अर्द्धसैनिक बल के सिपाहियों का वेतन और अन्य तरक्की की सुविधाओं आदि को लेकर विवाद ही नहीं छिपा हुआ है बल्कि बंगलादेश की पराजित कठमुल्ला ताकतों की हताशा भी छिपी हुई है। हालांकि इसका समाधान भी इस देश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने तुरत-फुरत निकाल लिया है और बंगलादेश राइफल्स के जवानों की मांगों को स्वीकार कर लिया है, मगर यह सवाल अभी तक जिन्दा है कि क्‍या कठमुल्ला ताकतें ऐसे और प्रयास नहीं करेंगी। इन ताकतों को बंगलादेश व भारत के बीच की दोस्ती सहन नहीं होती है। यही वजह है कि इस देश में पिछले प्रशासनों के दौरान हूजी जैसे आतंकवादी संगठन मजबूत हुए। इस देश में अगर पाकिस्तान की आईएसआई अपनी मदद से ऐसे संगठनों को पनपाती रही है तो इसका मतलब यही निकलता है कि बंगलादेश में कठमुल्ला ताकतें स‍क्ता पर काबिज होने के लिए आतंकवाद का सहारा लेने से भी परहेज नहीं करती हैं, मगर ऐसी ताकतों को बंगलादेश की जनता ने पूरी तरह नकार दिया है और इसकी बागडोर शेख हसीना के हाथ में दी है जो लोकतंत्र की सबसे बड़ी सिपाही मानी जाती हैं। शेख हसीना ने जिस प्रकार आतंकवाद के खिलाफ अपने देश में अभियान छेड़ा है और भारत को यह आश्वासन दिया है कि उनके देश में किसी भी आतंकवादी संगठन को पनपने नहीं दिया जाएगा और इस मोर्चे पर वह भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करेगी उससे भी कठमुल्लापंथियों के हौसले पस्त हुए हैं। शेख हसीना ने तो पूरे दक्षेस देशों का एक संयुक्त आतंकवाद विरोधी सुरक्षा बल तक बनाने का सुझाव दिया था। यह पाकिस्तान की हुकूमत को परेशान करने के लिए काफी है क्‍योंकि बंगलादेश भी घोषित रूप से एक इस्लामी मुल्क है मगर यह मूल रूप से बंगला संस्कृति का ध्वज वाहक है। इस देश के लोगों की वेषभूषा से लेकर रहन-सहन और खान-पान पूरी तरह बंगाली है। पाकिस्तान से यह कभी बर्दाश्त नहीं हुआ है और उसकी हरचंद कोशिश रही है कि बंगलादेश में कट्टरपंथ को फुसलाकर भारतीयों और बंगलादेशियों में मनमुटाव बढ़ाया जाए। बदल रही स्थितियों पर भारत और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को नजर रखनी होगी और सचेत रहना होगा।

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