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Sunday, April 4, 2010

रेल रोकने वालों का विरोध जरूरी

कोलकाता से फकत 39 कि.मी. दूर बामनगाछी स्टेशन पर शुक्रवार को कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने कुछ अपराधियों को गिरफ्तार करने की मांग को लेकर रेल रोक दी थी। उसी में रुक गयी वह ट्रेन भी जिसमें एक बाप अपने अबोध बेटे को लेकर इलाज कराने अस्पताल जा रहा था। बच्चे की तबीयत बिगड़ती जा रही थी। वह पथावरोध करने वालों से गिड़गिड़ाया रोया पर उसकी किसी ने नहीं सुनी। उस आदमी ने रेल यात्रियों से गुहार लगायी और यात्री उसके समर्थन में खड़े हो गये। यह देखना था कि प्रदर्शनकारी भाग निकले।
यह घटना राजनीतिक मनमानी के विरोध का मुकममल संकेत है। इसे अगर अपना लिया जाय तो इस प्रकार की घटनाएं कम होंगी। यह सोचना जरूरी है कि पहिए या चक्के का सीधा रिश्ता विकास से है। चाहे वह रेल का पहिया हो, कार, स्कूटर, ट्रक, बस आदि किसी वाहन का पहिया हो या फिर किसी मशीनरी का कोई चक्का या पहियारूपी कल पुर्जा। ऐसा माना जाता है कि इन सभी पहियों या चक्कों के निरंतर घूमते रहने अथवा अधिक से अधिक घूमने या निर्धारित अवधि या सीमा तक घूमने पर ही पूरे देश के विकास का दारोमदर है। ठीक इसके विपरीत यह भी माना जाता है कि यदि देश की प्रगति व विकास के प्रतीक इस पहिए या चक्के को रोका गया तो मानो देश का विकास बाधित हो गया।
परंतु राजनीतिक अधिकारों के नाम पर किसी को सुध नहीं रहती है कि उन्हें ऐसे किसी विरोध प्रदर्शन का आयोजन अथवा नेतृत्व नहीं करना चाहिए जो कि देश के विकास को बाधित करने वाला हो। आज आक्रामकता तो लगता है भारतीय राजनीति में सफलता का पैमाना बन चुका है। या इस प्रकार की गैर कानूनी गतिविधियां व गैर कानूनी प्रदर्शन गोया भारतीय राजनीति में फैशन के रूप में अपनी जगह बना चुके हैं। ऐसे विरोध प्रदर्शनों में भी न तो नेताओं का कुछ बिगड़ता है और न ही सरकार का, बल्कि दुर्भाग्यवश यहां भी आम आदमी ही इन सब अव्यवस्थाओं से सबसे अधिक प्रभावित होता है।
इस प्रकरण में एक और सबसे बड़ी आश्चर्यजनक बात यह है कि ऐसे विकास विरोधी कहे जा सकने वाले प्रदर्शनों या चक्का जाम का नेतृत्व करने वाला नेता स्वयं को किसी बड़े महारथी से कम नहीं समझता। कोई राष्ट्रभक्त, बिरादरी भक्त, समुदाय विशेष का देशभक्त रहनुमा जो कि सीमित समाज में अपनी चौधराहट बरकरार रखने के लिए देश को होने वाली इस क्षतिपूर्ति के लिए न तो सामने आता है न ही इस क्षतिपूर्ति के उपाय बताता है। बजाए इसके यह तथाकथित राष्ट्रभक्त नेता इस प्रकार की क्षति देश को पहुंचाने जैसे कारनामों को शायद अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।
विरोध प्रदर्शनों तथा जाम आदि की सबसे पहली शिकार या तो रेल होती है या देश के राजमार्ग। गोया हम कह सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था को ठेस पहुंचाने वाले आक्रामक विरोध प्रदर्शन संभवत: भारतीय राजनीति विशेषकर विपक्ष की राजनीति का एक प्रमुख अंग बन चुके हैं। हमारे देश के विरोध प्रदर्शंन, चक्का जाम या तालाबंदी किस हद तक जाती है यह भी हम सभी प्राय: देखते व सुनते रहते हैं। फैक्ट्री हो या परिवहन व्यवस्था या रेलगाडिय़ां या रेल पटरियां। हमारे देश के बहादुर प्रदर्शनकारी तो गोया देश की इन संपत्तियों को तोडऩे- फोडऩे तथा इन्हें जलाने में कुछ अधिक राहत एवं संतुष्टि महसूस करता है। प्राय: यह भी देखा गया है कि ऐसे जाम व प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले नेता ऐसे विरोध प्रदर्शन का प्रयोग अपने राजनैतिक भविष्य हेतु एक अवसर के रूप में करने से नहीं हिचकिचाते। बहरहाल भारतीय राजनीति का यह विशेष अंदाज हमारे देश की राजनैतिक व्यवस्था में अपनी जड़ें गहरी कर चुका है। मुट्ठी भर लोगों को साथ लेकर देश की यातायात, परिवहन, रेल व्यवस्था अथवा कल कारखानों को रोक देना संभवत: भारतीय राजनीति में भाग ले रहे ऐसे नेताओं की नियति में शामिल हो चुका है। इनका भी जवाब भारतीय मतदाताओं के पास ही है। जनता सर्वप्रथम यह महसूस करे कि चक्का जाम की राजनीति आम आदमी के लिए लाभदायक है या देश के विकास के लिए बाधक? उसके बाद ऐसी गतिविधियों में शामिल नेताओं से भारतीय लोकतंत्र के चुनावी महापर्व में अपना हिसाब-किताब चुकता करे। जनता यह महसूस करे कि देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाला नेता वास्तव में 'हीरो या 'शहीद नहीं बल्कि वह भी देश के विकास का दुश्मन है। जनता को चाहिये उनसे उसी तरह का आचरण करे।

1 comments:

आलोक साहिल said...

बिल्कुल सही कहा आपने...ऐसे लोगों को भला हीरो कैसे कहा जा सकता है...जो विकास में अड़चनें लगाता है...विरोध के अपने तरीके होते हैं...लेकिन इन तरीकों को कत्तई वाजिब नहीं ठहराया जा सकता

आलोक साहिल