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Monday, April 5, 2010

फंस गया है भारत

भारत और चीन में कूटनीतिक सम्बंधों के 60 वर्ष पूरे होने के अवसर पर दोनों देशों ने 6 माह के कार्यक्रम की शुरूआत की है। विदेश मंत्री श्री एस एम कृष्णा इसमें शामिल होने के लिये चीन पहुंच चुके हैं। इस मौके पर हम भूल गये हैं (फिलहाल ही सही) कि पिछले साल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी पार्टी के चुनाव के दौरान प्रचार के लिये जब अरुणाचल गये थे तो चीन ने क्या कहा था और यह भी भूल गये हैं कि परमपावन दलाई लामा जब स्थानीय लोगों के बुलावे पर अरुणाचल प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र तवांग की यात्रा पर गये थे तो चीन ने कितना जहर उगला था। चीन अरुणाचल प्रदेश को अपना इलाका मानता है और इसे दक्षिणी तिब्बत कहता है। उसका कहना है वर्तमान सीमावार्ता के तहत अरुणाचल नहीं तो कम से कम तवांग उसे सौंप दिया जाय। चीनियों की याददाश्त बहुत गहरी है और वे नहीं भूले हैं कि लगभग सभी दलाई लामाओं का जन्म तवांग में ही हुआ है और वर्तमान दलाई लामा 1959 में निर्वासन के समय तवांग इलाके में ही आये थे। चीन ने साफ कह दिया है कि जब तक भारत कम से कम तवांग को चीन के हवाले नहीं करता है कोई सीमा समझौता नहीं हो सकता है। अगर भारत ऐसा करता है तो उस आबादी का पलायन होगा। भारत की कोई भी सरकार चाहे कितने भी बहुमत से जीत कर आयी हो चीन के पक्ष में संसद को इस काम के लिये तैयार नहीं कर सकती। पिछले साल चीन की भारत विरोधी गतिविधियों की खबर लगातार आती रही। कभी खबर आती कि वह तिब्बत में अपनी फौज बढ़ा रहा है तो कभी सुना जाता कि उसका गश्ती दल भारतीय सीमा में घुसकर ना केवल अपने निशान बना जाता था तो कभी सुनने में आता कि वह भारतीय सीमा में पत्थरों में कुछ लिख दे रही है। विपक्षी दलों की बारी छीछालेदर के बावजूद भारत सीमा पर ढांचागत सुधारों के मामले में चीन से बहुत पीछे है। चीन में गैरसरकारी वेबसाइटों और ब्लॉग्स पर अकसर चर्चा देखा गया है कि जरूरी होने पर भारत को केसे सबक सिखाया जा सकता है। इसमें 1962 की अपमानजनक पराजय जैसा विकल्प भी शामिल है। भारत को विखंडित करने के लिये यहां चल रहे अलगाववादी आंदोलनों को मदद देने पर भी उन स्रोतों द्वारा विचार किया गया है। चीन ना केवल सीमावर्ती क्षेत्रों में सक्रिय है बल्कि वह भारत के आसपास के इलाकों में भी बराबर रूप से सक्रिय है। दक्षिण एशिया के कई देशों के प्रति भारत के मन में अविश्वास तथा शंका है। इसका लाभ उठा कर वह उन देशों में अपनी जड़ें जमा चुका है। पाकिस्तान के बलोच इलाके में व्यवसायिक बंदरगाह बनाने के बाद वह अब भारत की ओर तनी परमाणु मिसाइलों को और विकसित करने में मदद कर रहा है। श्रीलंका में तमिल मुक्ति चीतों को कुचलने के लिये चीन ने वहां की सरकार को हथियार देकर उसका मन जीत लिया। मालदीव में भी चीनी सैलानियों की आवक बढ़ी है और वहां उनकी जरूरियात को पूरा करने के लिये उसने एक बैंक भी खोल दिया है। बांग्लादेश में भी उसने घुसपैठ की है। हसीना सरकार की भारत से गहरी मित्रता के बावजूद वहां के विकास के कार्यों में भारत की कोई भूमिका नहीं है लेकिन चीन से उसने तेल और गैस की तलाश का समझौता किया है। यही नहीं म्यांमार की अराकान पहाडिय़ों से चीन के युनान प्रांत को जोडऩे के लिये बंगलादेश होकर सड़क बनाने की योजना है। अगर बंगलादेश में तेल या गैस मिल गया तो चीन की वहां स्थिति मजबूत हो जायेगी यही नहीं नेपाल में भी वह नेपाली सड़कों को तिब्बत से जोडऩे और ल्हासा रेल लाइन को नेपाल तक बढ़ाने की संभावनाओं पर विचार कर रहा है।
इस तरह से भारत के चारों तरफ अपनी फौज को लाने ले जाने के लिये सुविधाएं तैयार कर रहा है। उसकी योजनाएं दीर्घकालिक हैं। जबकि भारत की योजनाएं तदर्थ हैं और उसकी कार्रवाई अचानक नींद से जागे इंसान की भांति होती है। भारत का पहले से ही दक्षिण एशिया में बहुत प्रभाव नहीं है और चीन की घुसपैठ से वह भी खत्म हो रहा है। भारत को उसके मुकाबले के लिये बहुत कुछ करना होगा। साठ साल पूरे होने के अवसर पर आयोजित जलसे में जो मीठी मीठी बातें होंगी वह कड़वी सच्चाई पर परदा नहीं डाल सकती। भारत फंस गया है।

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