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Sunday, August 1, 2010

यदि भाजपा अथवा एन डी ए नहीं होता तो!!!


कभी कभी ऐसा लगता है कि यदि संसद में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग अथवा एन डी ए ) नहीं होता तो संसद का हाल क्या होता, सरकार का क्या होता? अगर एकदम शालीन और गंभीर विपक्ष होता और वह राष्ट्र के समक्ष आये मसलों को पूरी गंभीरता एवं शालीनता से उठाता तो सरकार भारी संकट में पड़ जाती। मसलों का अभाव थोड़े ही था।
शुरू करें ममता जी के प्रेस कांफ्रेंस में अपनी हत्या की साजिश का भंडाफोड़, कश्मीर की समस्या, नक्सली समस्या, कर्नाटक का अवैध खनन, रोजाना बढ़ती महंगाई, विस्मृत हो चुका भोपाल इत्यादि। किसी और संसद में यदि होता तो गंभीर बहस होती और एकदम शालीन विपक्ष होता तो यकीनन सरकार इससे बच नहीं सकती। वह बहस कराने और अंत में मतदान कराने से कतई इनकार नहीं सकती। लेकिन सबने टीवी पर देखा होगा कि हफ्ते भर तक विपक्ष दोनों सदनों में ऊधम मचाता रहा। यहां तक कि जब सुषमा स्वराज बोल रहीं थीं तो उन्हीं पार्टी के संसद सदन में उधम मचा रहे थे, इधर- उधर दौड़ भाग रहे थे। लेकिन यह नया नहीं है।
जब भी सरकार किसी संकट में फंसती है तो विपक्ष संसद में इसी तरह का आचरण करता है। वह अपने पत्ते जोर से उछालता है, हंगामा खड़ा करता है और सरकार चुपचाप सटक लेती है।
बेशक सरकार के पास एक अति अचूक और गुप्त हथियार है। उसका नाम धर्मनिरपेक्षता है। इस हथियार से वह विपक्ष को विभाजित कर देती है। भारी महंगाई जैसे बेहद ज्वलंत मुद्दे पर भी वामपंथी और मंडल गिरोह के सदस्य संप्रग से विरोध नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करते ही उन पर दुश्मन के हमबिस्तर होने का आरोप लग जाता। राजग हमेशा संप्रग पर दया दिखाता है।
एक ऐसी संसद की कल्पना करें, जिसमें भाजपा नहीं हो और कांग्रेस को केवल सेकुलर विपक्ष से मुकाबला करना होता। पिछले 30 वर्षों से ऐसा भारत में नहीं हुआ। वह तो नेहरू के जमाने में होता था कि सदन में बहुमत होते हुए भी चीन के संदर्भ में विदेश नीति पर सरकार के दांत खट्टे हो गये थे। उस समय मीनू मसानी, नम्बूदिरीपाद और राम मनोहर लोहिया सरीखे सांसद थे जो अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के बल पर सरकार को नाकों चने चबवा देते थे। फिर भी बहस एकदम शांत और गंभीर तरीके से होती थी।
लेकिन अभी तो सरकार ने भाजपा को पाल रखा है। इसके बिना वामदलों और मंडल गिरोहों को संभालना संभव नहीं था। यही नहीं सरकार को मुसलमानों से जुड़े सवालों का उत्तर देने से बचना संभव नहीं था। समाज शास्त्र का एक सिद्धांत है कि जब आप अपने महत्वपूर्ण तबके के मतों को आकर्षित करने की कोशिश करते हैं वह उतना ही सार्वभौमिकता से अलग होता जाता है।
भाजपा का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि वह जैसे जैसे अपना प्रसार करने का प्रयास करती है तो बहुमत से दूर होती जाती है। यह बात केवल संसद में ही नहीं है, प्रांतीय असेम्बलियों में भी ऐसा ही होता है। वहां भी वास्तविक विपक्ष एकदम अनियंत्रित आचरण करता है। ऐसे आचरण का प्रभाव यह होता है कि एक बार जो सत्ता में आ गये तो जैसा आचरण चाहे करें। चाहे उसके लिये देश को कितनी भी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े।

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