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Sunday, August 1, 2010

बनाया जाना कोलकाता को लंदन




पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री बनने का सपना देखने वाली रेलमंत्री माननीया ममता बनर्जी , जिन्हें इन दिनों अपनी हत्या की साजिश का भय ज्यादा हे, का कहना है कि वे यदि सत्ता में आ गयीं तो कोलकाता को लंदन बना देंगी और पश्चिम बंगाल को क्या?... शायद इसकी कल्पना उनके मन में नहीं है।
भारत के लगभग हर मेट्रो शहर और यहां तक कि ब्रिटिश शहर लंदन भी इन दिनों भयग्रस्त है। जबकि शहर की अवधारणा आरंभ में उम्मीदों को जगाने वाले केंद्र के रूप में थी। गैर शहरी संदर्भ में उम्मीदों को जगाने वाला भाव उतना ताकतवर नहीं होता। इसलिए देखा जाए तो किसी भी शहर की विकास नीतियों का इतना ही मकसद होना चाहिए कि वह उम्मीदों को कितना बढ़ा सकती हैं और भय की भावना को कितना कम कर सकती हैं।
किसी अज्ञात का भय, जो विकास के सफर में हमारे जेहन में बहुत गहरे पैठता चला गया है, एक छोटे कस्बे या देहात की तुलना में बड़े शहर में ज्यादा होता है। शहरों में प्रवासियों की दिन -ब - दिन बढ़ती तादाद के चलते वहां दूर देश के बाशिंदों के बड़े-बड़े जत्थे बन गए हैं। मुंबई में बिहारी, कोलकाता में बंगलादेशी लोग अपनी अलग-थलग दुनियाओं में रहते हैं, जो हमेशा से ही शहरी जीवन की सबसे भयावह तस्वीर रही है। किसी भी शहर की सांस्कृतिक नीति के सबसे अहम लक्ष्यों में से एक होना चाहिए, शहर में एक साथ रह रहे प्रवासियों के समूहों के कारण उपजने वाले भय को कम करना। यह जिम्मेदारी नीतियों के नियंताओं पर आती है। लेकिन उम्मीदों को जगाने वाली नीति नियंता को ही अपनी जान का भय है। लेकिन दूसरी बुनियादी भावना पर ध्यान दें और वह है उम्मीद।
अब जरा बिहार के किसी गांव से आए एक आदमी के बारे में सोचें, जो कोलकाता के एक दूर दराज के उपनगर में अपने दड़बेनुमा कमरे में रहता है और दिन के 24 घंटों में से 14 घंटे हाड़तोड़ मेहनत करता है और चार घंटे घर से काम पर आने-जाने में गुजार देता है। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि वह यह मानने को तैयार नहीं कि गांव में इससे बेहतर गुजर-बसर हो सकती है। शहरों में कई तरह की संभावनाएं होती हैं। वह संभावना है उम्मीद। आने वाले बेहतर कल की उम्मीद, चाहे वह कल कितना ही दूर क्यों न हो।
ममता जी, यही उम्मीद जगा रहीं हैं लेकिन उन्हें सतर्क रहना होगा। उनका यह भीति भाव कहीं उनकी उम्मीदों पर पानी न फेर दे। उम्मीदों के लिये सीमाएं जरूरी हैं और उससे जरूरी है अपने भीतर के भय का इलाज करना।
इसी उम्मीद और अवसरों की मौजूदगी के लिए यूनानी कवि एल्केयस ने कहा था : 'शहर सुंदर छतों वाले घरों या मजबूत पत्थरों की दीवारों और नहरों या बंदरगाहों से नहीं बनते, शहरों का निर्माण होता है अवसरों का उपयोग करने की मनुष्य की क्षमताओं से।
इस उम्मीद के कई चेहरे हैं। यह कई स्तरों पर मौजूद होती है। चाहे वह बिहार का कोई मजदूर हो, जो अच्छी शिक्षा के जरिए अपने बच्चों के बेहतर कल की उम्मीद लगाए बैठा है या छोटे कस्बों और देहातों से आए वे तमाम लोग, जो महज शहरी होने या एक नयी पहचान बनाने की चाह में यहां डेरा डाले हुए हैं। शायद यही वह चीज है, जो शहरी जिंदगी को इतना आकर्षक बनाती है।
लेकिन इससे व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिलता है। निरंकुश व्यक्तिवाद की ओर रुझान, अंतहीन संभावनाओं की तलाश अब भी हमारे शहरी परिदृश्य के केंद्र में है, लेकिन धीरे-धीरे नीति निर्माताओं के लिए चीजें जटिल होती जाएंगी। यह नौबत तब आएगी, जब वे शहरी संस्कृति और शहरी विकास को एक करने की कोशिश करेंगे। दूसरे शब्दों में, मध्यवर्गीय और खासतौर पर सूचना आधारित अर्थव्यवस्था में मुब्तिला पेशेवरों को आकर्षित करने वाली सांस्कृतिक हलचलों में न केवल परंपरागत सांस्कृतिक चीजें शामिल हैं, बल्कि वे निजी अभिव्यक्ति के अवसर भी मुहैया कराती हैं। लेकिन जब निजी अभिव्यक्ति की यह प्रवृत्ति अति को छू लेती है तो उसके समाज पर नुकसानदेह परिणाम भी होते हैं।
माननीया ममता बनर्जी शहर निर्माण और अपने भीतर के भर को प्रदर्शित करने के विभिन्न क्रमों में अति को छूती हुई नजर आ रहीं हैं। उन्हें सपनों को साकार करने के लिये दोनों ध्रुवों पर संयम मुनासिब है।

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