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Wednesday, August 4, 2010

हमारे नौजवान इतने गुस्से में क्यों हैं?




पिछले दस दिनों से कश्मीर घाटी धधक रही है। मंगलवार को तो उस समय हद हो गयी जब उपद्रवियों को देखते ही शासन ने गोली मारने का आदेश दे दिया। मंगलवार को कराची से कश्मीर तक अफगानिस्तान से असम तक कई जगहों पर हिंसा की खबरों से समाचार बुलेटिन भरे रहे। संसद में महंगाई को लेकर हंगामा और सड़क पर खेल (कामनवेल्थ) में भ्रष्टाचार को लेकर हंगामा। कहीं नक्सली समस्या तो कहीं बिहार, यूपी से आये लोगों के कारण फैली समस्या को लेकर बवाल। लेकिन सबमें इक बात कॉमन है कि इन सारे हंगामा और बवालों में देश के युवकों की सबसे ज्यादा भागीदारी।


ये युवक, उन युवकों में से हैं, जो बड़ी बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियों में नौकरी, डॉक्टर इंजीनियर बनने का सपना देखते हैं। सब जानते हैं कि कश्मीर घाटी में पुलिस पर पत्थर बरसाने वाले लड़कों के भी वे सपने नहीं पूरे होने वाले। यह मराठी बोलने वाले उन नौजवानों के नसीब में भी नहीं है, जो यदा-कदा मुंबई से बाहर के लोगों को डराते-धमकाते रहते हैं। सन् 2005 की गर्मियों में छत्तीसगढ़ सरकार ने जब सलवा जुडूम नाम की निगरानी सेना बनायी तो उनके पास आवेदनों की झड़ी लग गयी। छत्तीसगढ़ में ऐसे नौजवानों की कमी नहीं थी, जो बेरोजगार थे। वैसे इस निगरानी सेना के जरिए छत्तीसगढ़ सरकार भाकपा (माओवादी) की पद्धतियों का मखौल ही उड़ा रही थी। आदिवासी रंगरूटों की भर्ती करने में भाकपा हमेशा आगे रही है, लेकिन इसके लिए भी तो आदिवासियों की जिंदगी, उनकी गरीबी और उनकी निराशा ही जिम्मेदार है।

भारत में हिंसा भड़कने के दो अहम कारण हैं- जनभावनाएं और विचारधारा। हिंसा की अधिकतर वारदातें इसी झंडे के तले होती हैं। लेकिन अमूमन यह हिंसा लोगों की चेतना में गहराई से बसी उम्मीदों और डर की अभिव्यक्ति होती है।
कश्मीर से आने वाली खबरों पर गौर करें तो पता चलेगा कि..कथित आजादी ..की लड़ाई लडऩे वालों को अपनी सेना के लिए सिपाही ढूंढने में मुश्किल नहीं आती। घाटी के बेरोजगार नौजवान पैसों के लालच में बड़ी आसानी से उनके लिए काम करने को तैयार हो जाते हैं। संघ परिवार की विचारधारा के हिमायती भले ही दावा करें कि सलवा जुडूम अतिवाद से राष्ट्रवाद की रक्षा करता है, लेकिन सच्चाई यह है कि उसके रंगरूट तनख्वाह, वर्दी और सबसे बढ़कर बंदूक के लालच में भर्ती हुए हैं।
आखिर बंदूक ही ऐसी ताकत है, जो मामूली से देहाती किसान को भी खास बना सकती है।
इसी तरह माकपा के पोलित ब्यूरो के सदस्यों ने भले ही मार्क्स और लेनिन की किताबें पढ़ रखी हों, लेकिन कैडर विचारधारा के आधार पर नहीं, बल्कि अमूमन अपनी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए उसमें शामिल होते हैं। जाहिर है तेंदू पत्ता चुनने या दूसरे की जमीन पर पसीना बहाने की बनिस्बत नक्सली होना ज्यादा रोमांचक है।
हिंसा के पीछे चाहे जो वजह हो, चाहे वह क्षेत्रीय भावना, जातीय गौरव, धार्मिक रूढिय़ों या फिर माओवादी क्रांति के नाम पर भड़कती हिंसा हो, एक बात इन सभी में समान है और वह है हिंसक वारदातों में नौजवानों की भागीदारी।
किसी भी घटना के पीछे छिपे कारण जैविक से ज्यादा सामाजिक और सांस्कृतिक होते हैं। मनुष्य जाति का समूचा इतिहास इस बात की गवाही दे सकता है।
भारत में आज अगर इतने सारे एंग्री यंग मेन हैं तो उसके लिए हमारे आर्थिक और सामाजिक ढांचे में गहरे पैठी विषमता जिम्मेदार है।
यहां लेफ्ट या राइट की अतिवादी विचारधाराओं से कोई सहानुभूति नहीं है। ना ही सांप्रदायिकता पर आधारित सामाजिक आंदोलनों से कोई वास्ता है। लेकिन यह भी सच है कि हिंसा की जिस आग में आज भारत झुलस रहा है, उसे महज उदारपंथी प्रवचनों से ही नहीं बुझाया जा सकता।
इसके लिए ज्यादा ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है। इसके लिए हमें अपनी अर्थव्यवस्था और शैक्षिक संस्थाओं के ढांचे को नए सिरे से गढऩा होगा। हमें ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जिसमें युवा अपनी ऊर्जा को हिंसा में बेकार खर्च करने के बजाय उसका इस्तेमाल ज्यादा उत्पादक कार्यो में करें और देश के निर्माण में अपना योगदान दें।

1 comments:

Unknown said...

Very well written Sir..... I agree with u as I also Believe that Kashmir mei jinke hatho mei pathar hain ve sabhi atankvadi nahi hai....!
Ghati ke logo ko bhi aman aur chain chahiye... lekin buniyadi suvidhaye aur rozgar sabse badi zarurat hai...! Sabr ka bandh tootta hai to yu hi sailab aata hai...
Rajneeti kuch is prakar khel khel rahi hai ki Pakistan ka nara lagane walo ko Sarkar apne sath mila rahi hai aur Azad Hindustan ka nara buland karne walo ko darkinar kiya ja raha hai.. Darr ki Rajneeti Virodhiyo ko milane pe dhyan de rahi hai, logo ko vikas ki or agrasar karna uska uddesh nahi!