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Monday, August 9, 2010

हम क्या थे, क्या हो गये और क्या होंगे?

आज यानी सोमवार के अखबार में अधिकांश खबरें लूट, भ्रष्टाचार, मौतें, हिंसा, किशोरियों को नंगा कर गांव में घुमाया जाना, खेलों में भ्रष्टाचार, योजनाओं में करप्शन इत्यादि - इत्यादि से जुड़ी हैं। ऐसा लगता है कि आज हम आजाद भारत के सबसे हिंसक दौर में जी रहे हैं। कहीं ट्रेन लुट जाती है, कहीं नक्सली- आतंकी वाहन उड़ा देते हें। कहीं सियासी नेतागण एक दूसरे को ललकारते हुए समर्थकों को कटवा डालने में भी नहीं हिचक रहे हैं। ये हालात तब हैं, जब आज भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। जब हमारे देश में तुलनात्मक रूप से एक स्थायी लोकतांत्रिक सरकार है और हम पहले से ज्यादा समृद्ध हैं। ऐसे में तीन सवाल सामने आते हैं।
पहला : यह क्या हो रहा है?
दूसरा : ये हालात हमें कहां लेकर जाएंगे?
तीसरा : इससे उबरने के लिए क्या किया जाए?

पहले सवाल का उत्तर बहुत घिसा-पिटा हो सकता है। वह राजनेताओं, भ्रष्ट अफसरों और अनपढ़ मतदाताओं से जुड़ा है। खासतौर पर शहर में बसने वाले लोगों द्वारा, जो वाकई भारत के 15 राज्यों में जारी संघर्षों से बेपरवाह हैं। जहां तक इन समस्याओं का सवाल है तो वे हमसे इतनी दूर हैं कि हम वाकई उन पर ध्यान देना भी जरूरी नहीं समझते। दूसरा सवाल कि ये हालात हमें कहां लेकर जाएंगे? इस पर पर्याप्त बहस की जरूरत है।
सच्चाई यह है कि वैश्वीकरण, उदारीकरण या हमारी आर्थिक नीतियों को चाहे जो नाम दिया जाए, उसके लाभ आम भारतीयों तक पहुंच नहीं पा रहे हैं। वे बस उन दस फीसदी भारतीयों तक ही पहुंच रहे हैं, जो आगे की कतार में खड़े हैं। देश की नब्बे फीसदी जनता उनसे महरूम है। उदारीकरण के लाभ देहात में बसने वाले गरीबों तक कभी नहीं पहुंच पाते। क्या भारत के किसानों को महंगाई से जूझना पड़ता है क्योंकि सरकार अपने बजट को नियंत्रित नहीं कर पाती है ? हां।
इसमें शिक्षा के दयनीय स्तर, जाति आधारित सामाजिक विभाजन, जनकल्याण की नीतियों का बेतरतीब इस्तेमाल और रोजगार के अवसरों के अभाव को भी जोड़ लें। गांवों की इस निराशाजनक तस्वीर को शहरों में बसने वाले कभी नहीं समझ सकते। हां हिंसक आंदोलनों को हवा देने वाले लोग जरूर उनकी स्थिति से भलीभांति वाकिफ हैं। इसीलिए किसी नौजवान के हाथ में बंदूक थमा दी जाती है और उसे जंग का सिपाही बना दिया जाता है। जब तक हम गांवों या पिछड़े इलाके के नौजवानों के लिए बेहतर कल नहीं बनाते, तब तक यह संक्रमण फैलता ही रहेगा। 15 के स्थान पर सभी 28 राज्य रोग की चपेट में आ सकते हैं।
मुसीबत मुंह बाए खड़ी है और हमारे शहर आंखें मूंदें बैठे हैं। हमें अंदरूनी संघर्षों की समस्या को अपनी प्राथमिकताओं में शुमार करना होगा, वरना हालात बदतर होते चले जाएंगे।
तीसरा सवाल कि इससे उबरने के लिए क्या किया जाए? जवाब है कि प्रतिबद्ध नेताओं का चुनाव।
लेकिन वह कैसे हो। चुनाव की पद्धति ऐसी है कि उसमें शामिल होने के लिये करोड़पति होना जरूरी है। अब जहां की 80 प्रतिशत से अधिक आबादी गरीबी की रेखा के नीचे हो वहां की समस्या एक करोड़पति नेता कैसे समझ सकेगा ? इसके लिये बीच की राह निकालनी होगी। वह है भ्रष्टाचार मुक्त समाज की रचना का प्रयास।