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Wednesday, August 11, 2010

ममता जी साध्य नहीं साधन को देखें



लोकतांत्रिक राजनीति में चाहे जितनी कमियां हैं, लेकिन उसके चंद अंतर्निहित लाभ भी हैं। वह है कि जहां सारे उपाय बेकार हो जाते हैं इसके माध्यम से शुरुआत की जा सकती है।
लालगढ़ के अभागे लोगों के लिये हिंसा, भय और आतंक और मौत ही पिछले दो सालों से मुकद्दर बनी हुई थी। इसमें उनकी कोई गलती भी नहीं थी और ना कोई भूमिका। वे लालगढ़ में अर्द्धसैनिक बलों और माओवादियों की जंग के शिकार हो रहे थे। उनकी बदकिस्मती को और बढ़ा रही थी एक नकारा सरकार की सोच। एक ऐसी सरकार जो माओवादियों और पुलिस की लड़ाई के पहले ही दिन से हजारों लोगों की आबादी को बेसहारा छोड़ कर खिसक गयी। हां कहना अभी ठीक नहीं होगा या जरा जल्दबाजी कही जायेगी कि सोमवार की ममता की रैली का क्या असर पड़ेगा पर यह तो कहा ही जा सकता है कि जैसे ही उन्होंने लालगढ़ में रैली के आयोजन का ऐलान किया वहां बदलाव का आगाज हो गया।

दरअसल, बुद्धदेव बाबू को तो ममता जी के इस साहस और कार्य की प्रशंसा करनी चाहिये पर वे और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस की इस रैली को पानी पी पी कर कोस रही है।
ममता जी ने सोमवार की रैली में माओवादियों और उस क्षेत्र में संगठित एक अन्य संगठन पीपल्स कमिटी अगेंस्ट पुलिस एट्रोसिटीज (पी सी पी ए) से आह्वान किया है कि वे हिंसा की राह छोड़ कर शांति के लिये वार्ता शुरू करें। बेशक यह एक अच्छी पहल है, परंतु उनकी रैली को जो माओवादियों तथा पी सी पी ए के लोगों द्वारा खुला समर्थन मिला उससे कुछ सवाल उठते हैं।
हो सकता है कि यह संप्रग सरकार के लिये बेइज्जती का कारण भी हो, जिस सरकार में ममता जी रेलमंत्री हैं। दूसरे उनके इस अभियान को माकपा के खिलाफ राजनीतिक लाभ लेने का एक औजार भी कहा जा सकता है पर ममता जी की पहल के ध्येय के बार में कोई गलत नहीं कह सकता।
अलबत्ता इसका राजनीतिक उद्देश्य जरूर स्वार्थ परक है।
इन सारी अच्छाइयों और भविष्यत लाभ के बावजूद अगर उनका यह अभियान नाकामयाब होता है तो क्या होगा, इसका अंदाजा है।
रेलमंत्री की उस रैली में वे लोग शामिल थे जो ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की दुर्घटना के जिम्मेदार थे। उन्हें वार्ता के लिये आमंत्रित करने के पीछे ममता जी की क्या मंशा हो सकती है?

यही नहीं, आजाद की पुलिस मुठभेड़ में मौत हो गयी। सरकार का यह कथन है, जबकि ममता जी का कहना है कि उसकी हत्या की गयी है। वह शांति वार्ता के प्रयास में लगा था।
जिस सरकार में ममता जी कैबिनेट मंत्री हैं, उस सरकार ने जिन संगठनों को आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा कहा है ममता जी उन्हीं लोगों से हाथ मिला रही हैं।
दरअसल उन्हें राज्य में सीपीएम को पराजित कर सत्ता पर कब्जा करना ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। पी सी पी ए की भी लड़ाई राज्य के सरकार है इसलिये उन्हें अपनी लड़ाई में एक सहयोगी मिल गया।
पी सी पी ए की साइक को अगर ठीक से विश्लेषित किया जाय तो एक तथ्य जरूर स्पष्ट होगा कि वे निहायत क्रूर और हिंसापसंद लोग हैं। जिस दिन उन्हें अहसास होगा कि ममता जी भी उनके लक्ष्यों को पूरा करने में सहायक नहीं हो पा रहीं हैं तो वे उनकी मुखालिफत करने में क्षण भर भी देरी नहीं करेंगे। ममता जी ने माओवादियों और पी सी पी ए को वार्ता के लिये आमंत्रित किया है, लेकिन शक है कि उनकी शर्तों को केंद्र और राज्य सरकारें मान लें।
माओवादी और पी सी पी ए की पहली शर्त है कि जंगलों से अर्द्धसैनिक बलों को वापस बुला लिया जाय। गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने भी वार्ता का प्रस्ताव दिया और माओवादियों ने माना कहां । क्योंकि अर्द्धसैनिक बलों को हटाने की शर्त किसी को मंजूर नहीं थी। ममता जी को यह तो मानना होगा कि माओवाद की समस्या केवल सामाजिक न्याय की समस्या नहीं है यह लोकतांत्रिक तौर पर चुनी गयी एक व्यवस्था को भी चुनौती है।

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