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Thursday, August 12, 2010

पी एम की मार्मिक अपील


कश्मीर के मामले में प्रधानमंत्री की अपील बड़ी भावुक थी। उन्होंने कश्मीरियों से पिछले दिनों कहा था कि वे खून खराबा बंद करें और अमन के लिये एक मौका दें। उन्होंने इसके बाद रोजगार तथा आर्थिक पैकेज की भी बातें की थी। लेकिन आज का कश्मीर सामाजिक मसलों से नियंत्रित नहीं होता बल्कि उसे कट्टरपंथी चलाते हैं और उन कट्टरपंथियों का एकमात्र इरादा कश्मीर से भारत को काट कर अलग करना है।
कश्मीर घाटी की जनता के आँसू पोंछने के लिए एक गठबंधन सरकार के प्रमुख के वश में जितना है, वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने करने की कोशिश की है।
उन्होंने घाटी के लोगों को अपने भाषण से यह यकीन दिलाने की कोशिश की है कि उन्हें स्वाभिमान और गरिमा के साथ जीवन जीने का पूरा हक है। लेकिन भारत का कोई भी प्रधानमंत्री कश्मीर को स्वायत्तता देने की एकतरफा घोषणा नहीं कर सकता, क्योंकि इस मुद्दे पर देश विभाजित है और प्रतिपक्षी भारतीय जनता पार्टी तो कश्मीर संबंधी संविधान का अनुच्छेद 370 तक हटवाना चाहती है, जिसके तहत इस राज्य को दूसरे राज्यों से ज्यादा अधिकार मिले हुए हैं। इसलिए मनमोहन सिंह ने ठीक ही कहा कि सबसे पहले तो यह जरूरी है कि जम्मू-कश्मीर में स्थायी तौर पर अमन-चैन कायम हो। इसके बाद यदि देश में राष्ट्रीय सहमति बने तो जम्मू-कश्मीर को संविधान के दायरे में स्वायत्तता प्रदान करने के बारे में विचार किया जा सकता है।
लेकिन जिस तरह से हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नरम और गरम गुटों के साथ-साथ कश्मीर की प्रतिपक्षी पार्टी-पीडीपी ने राजनीतिक दलों की बैठक का बहिष्कार किया।

पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने प्रधानमंत्री की नवीनतम पहल को कश्मीर की जनता के साथ मजाक घोषित कर दिया, उससे राष्ट्रीय सहमति की कोई तस्वीर बनती दिखाई नहीं देती।

हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के गरम दल के नेता अली शाह गिलानी को तो आजादी से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं है। जम्मू और कश्मीर में उमर अब्दुल्ला सरकार की अनुभवहीनता के कारण घाटी में अलगाववाद की प्रवृत्ति एक बार फिर उभर आई है।

सड़कों पर आकर नौजवान, बच्चे और महिलाएं आजादी की माँग करने लगे हैं। सरकारी प्रतिष्ठानों पर वहाँ ये लोग हमले कर रहे हैं और कर्फ्यू तोड़कर पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों पर ईंट-पत्थर बरसा रहे हैं।

प्रधानमंत्री सिंह से मिलने के बाद उमर अब्दुल्ला ने लोगों के दु:ख-दर्द बांटने का अभियान जरूर शुरू किया है मगर अलगाववाद की भावना कम नहीं हो रही है। घाटी के लोग सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम की तत्काल वापसी चाहते हैं लेकिन किसी भी देश में जब सामान्य कानूनों से कानून और व्यवस्था को बनाए रखना नामुमकिन हो जाता है, तो वांछित कदम उठाने ही पड़ते हैं। इसलिए प्रधानमंत्री इसके अलावा और कुछ भी नहीं कह सकते थे, जो उन्होंने इस बारे में कहा। प्रधानमंत्री ने जम्मू और कश्मीर में व्यापक बेरोजगारी दूर करने के लिए डॉ. सी रंगराजन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ दल गठित कर ही दिया है। जरूरत इस बात की है कि इस मुद्दे पर सभी राजनीतिक दल सरकार के साथ सहयोग करें और उग्र हो रही युवा पीढ़ी के साथ गांव-गांव जाकर संवाद करें।
अलगाववादी जानते हैं कि ताकत से जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग नहीं किया जा सकता। अलबत्ता संविधान के अंतर्गत अगर कश्मीरी लोग चांद भी माँगें तो वह संभव है। कश्मीरियों के पास भी उसी तरह संवाद का रास्ता है, जैसा भारत के पास। इसलिए भारत पहले तो कश्मीर के घावों पर मरहम लगाए और फिर सतत संवाद की उदारता दिखाए। इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।

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