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Sunday, August 22, 2010

नत्था मरेगा, जरूर मरेगा


रविवार (बाइस अगस्त ) के अखबारों में दो खबरों ने लोगों को जरूर दहला दिया होगा। पहली कि हजारीबाग जिले के पतरातू के समीप एक गांव के लगभग दो हजार किसानों ने भूख और निराशा जनित अवसाद से बचने के लिये राष्ट्रपति से सामूहिक आत्महत्या की अनुमति मांगी है और दूसरी कि बुद्धदेव भट्टाचार्य के सोनार बांग्ला में एक किसान ने भूख और कर्ज से ऊब कर खुदकुशी कर ली। देश में भुखमरी बढ़ रही है। यह तथ्य से ज्यादा एक सवाल है।
आखिर क्यों?

आखिर क्यों देश में विकास के तमाम प्रयासों के बावजूद एक बड़े तबके को जीने लायक एक मुट्ठी अन्न भी नसीब नहीं है ?
फूड ऐंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया का हर छठा व्यक्ति भूखा है। इसका मतलब यह है कि तरक्की के साधन एक बड़े वर्ग तक नहीं पहुंच पा रहे हैं और अमीर तथा गरीब के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है।
एफएओ का मानना है कि विश्वव्यापी आर्थिक संकट के कारण अमीर मुल्कों द्वारा गरीब देशों को दी जाने वाली आर्थिक मदद में कमी आ गई है। फिर ज्यादातर संपन्न राष्ट्रों ने कृषि के मद में सहायता देना कम कर दिया है। गौर करने की बात है कि अब अफ्रीका की अपेक्षा दक्षिण एशिया में भुखमरी तेजी से बढ़ रही है। भारत में भी स्थिति बेहद खतरनाक है। इस साल के ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मुताबिक भारत के करीब 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।
हमारे अधिकतर गांवों या आदिवासी इलाकों में गरीबी के कारण लोग अपने बच्चों को बुनियादी भोजन भी उपलब्ध नहीं करा पाते, इसलिए बच्चे बीमार हो जाते हैं। बेहतर स्वास्थ्य सेवा न होने के कारण बच्चों का ढंग से टीकाकरण नहीं हो पाता है, न ही उनकी बीमारियों का समुचित इलाज। यह वाकई विडंबना है कि सरकार एक तरफ तो यह दावा करती रहती है कि उसके गोदामों में अनाज भरा पड़ा है, लेकिन दूसरी तरफ भूख से मौतों का सिलसिला भी जारी है।

आजादी के बाद पूंजी प्रधान विकास नीति अपनाने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जो झटका लगा है उसकी भरपाई नहीं हो सकी है। एक तरफ तो शहरों का लगातार विकास होता रहा लेकिन गांवों में रोजगार के साधन लगातार खत्म होते गए। सरकार ने निर्धनता उन्मूलन के लिए जो योजनाएं चलाई हैं, उनका मकसद गरीबों को किसी तरह जीवित रखना है, उनके रोजी-रोजगार के लिए स्थायी संसाधन विकसित करना नहीं। लेकिन मुश्किल यह है कि इन योजनाओं में भी भ्रष्टाचार का घुन लगा हुआ है। प्रशासन के निचले स्तर पर भ्रष्टाचार के कारण आम तौर पर इसका लाभ गरीबों को नहीं मिल पाता।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) गरीबों को सस्ते दर पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए बनी है, लेकिन आज देश भर में करीब दो करोड़ फर्जी कार्ड बने हुए हैं, जिनके जरिए पीडीएस का अनाज जरूरतमंदों तक पहुंचने की बजाय किसी और की झोली में पहुंच रहा है। उनकी बड़े पैमाने पर कालाबाजारी हो रही है। इसी तरह महानरेगा में भी अनियमितता की कई खबरें सुनने में आ रही हैं। कोई जनतांत्रिक व्यवस्था तभी सार्थक कही जा सकती है, जब प्रत्येक नागरिक का पेट भरा रहे।

सरकार अपनी इस बुनियादी जिम्मेदारी को समझे। लेकिन सरकार और हमारे माननीय सांसद इस जिम्मेदारी को समझना तो दूर ऐसे मौके पर अपना वेतन बढ़वाने के लिये अशोभनीय हरकतें कर रहे हैं। जब तक हमारे ये प्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे तब तक इसी तरह नत्था, होरी, गोबर, रामदीन और न जाने ऐसे कितने आदमी मरते रहेंगे। लोकतंत्र में अगर जनता भूखी मरती है तो सरकार को शासन का हक नहीं है।

1 comments:

Mithilesh dubey said...

सरकार क्या समझेगी, कुछ नहीं, जहाँ हर डाल पर ही ऊल्लू बैठा हो वहां ज्याद क्या कुछ भी उम्मीद नहीं करनी चाहिए ।