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Tuesday, August 31, 2010

कण- कण में कृष्ण हैं

कृषिर्भूवाचक: शब्दोणश्च निवृतिवाचक:
तयोरैक्यं परंब्रह्म इत्यभिधीयते
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्मखंड 28 )
यानी,..'कृष... सत्ता को कहते हैं। अतुलित अखंड सत्ता का नाम कृष्ण है। ..ण..का अर्थ निवृत्ति। निवृति का अर्थ है आनंद। असीमित सत्ता (souvernity) और असीमित आनंद को मिलाकर कृष्ण होता है। पर आज हालात बदल गये हैं। असीमित सत्ता तो है पर आनंद बहुजन सुखाय नहीं रहा।
समय ने कब नहीं पुकारा ?
समय आज भी चीखता है कि उसे चाहिये कृष्ण।
पुकार प्रतिध्वनित भी होती है और चीख कर लोप भी हो जाती है।
कान्हा मूरत भर रह गये हैं और हमने उन्हें सामयिक मानना भी छोड़ दिया है।
जैसे अब कोई कंस नहीं, किसी वासुदेव को कैद नहीं या किसी देवकी की कोख नहीं कुचली जाती।
डल झील सुलगती है, असम के जंगल बिलखते हैं, तमिलनाडु का अपना राग है, दिल्ली की जिन्दगी में घुली दहशत योगेश्वर का जोगिया रंग आतंकवाद का प्रतीक बन गया है या कहें ...घर घर मथुरा जन जन कंसा, इतने श्याम कहां से लाऊं ?..
उस रात जब कान्हा को सिर पर उठाये वसुदेव ने उफनती जमुना पार की थी तो आंखों में युग परिवर्तन का सपना रहा होगा। अधर्म पर धर्म की विजय होनी ही चाहिये। कालिया के फन कुचले जाने की आवश्यकता थी, कंस की तानाशाही व्यवस्था परिवर्तन चाहती थी लेकिन आज के शिशुपाल करोड़ों करोड़ गालियां बकते चौक चौक खड़े हैं। आज के कंस जिहादी, - नक्सल हो गये हैं; आज के जरासंघ इस कदर फैले कि चीन और पाकिस्तान हो गये हैं।
व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश किसमें नहीं होता ?
साहित्यकारों के लिये लेखन है यह आक्रोश, तो नेताओं के लिये फैशन है, विद्यार्थियों के लिये डिस्कशन है तो आम आदमी अब भी इसी सोच में रहता है कि.. कोई नृप होहीं हमें का हानि।...
कृष्ण उदाहरण हैं कि सत्ता समाज के लिये है और उसके अनुसार बदलाव भी होने चाहिये। कृष्ण दिशा देते हैं कि व्यवस्था के खिलाफ लफ्फाजियां करना आसान है, लेकिन उसे जनानुरूप बनाने के लिये दृष्टिकोण चाहिये और इसके लिये स्वयं ही तत्पर होना होगा। कृष्ण सोच शून्य क्रांतियों के पक्षधर नहीं रहे अर्थात हर बार बंदूक लेकर ..लाल सलाम.. करने से ही बात नहीं बनती। हर बार...हर-हर महादेव.. और...अल्लाह हो अकबर... से निमित्त सिद्ध नहीं होते; बल्कि कभी कभी मथुरा बचानी भी पड़ती है, कभी कभी अपने सोच की द्वारका बसानी भी होती है।
कृष्ण राजा नहीं थे, जबकि उनके एक इशारे पर अनेक राजमुकुट उनके चरणों पर समर्पित हो सकते थे।
आराध्य केवल अगरबत्ती दिखाने के लिये तो नहीं होते, अनुकरणीय भी होते हैं। कृष्ण, एक मानव की महानता के उस शिखर तक पहुंचने की यात्रा हैं, जहां से ईश्वर की सत्ता आरंभ होती है। धर्म की स्थापना बहुत महान उद्देश्य है और धर्म किसी आराधना पद्धति का नाम नहीं है।
धर्म वह है जहां मानवता निर्भीक हो सके, इसके लिये कदाचित भीष्म पर भी शस्त्र उठाना पड़ सकता है या यह भी संभव है कि धर्मराज से ही कहलाना पड़े...अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो... क्योंकि अंतत: दुर्योधन का ह्रास होकर रहेगा और सत्ता को आंख मिलेगी।
लेकिन आज ऐसी सोच कहां है ? सुबह की चाय के साथ सरकार को कोसने से बात बन जाती है। हर कोई यह मानता है कि कुछ बदलना चाहिये लेकिन क्या ? और कौन करेगा ?
कृष्ण वहन करते हैं सारा..योग-क्षेम... किंतु अर्जुन हो जाने का साहस कितनों में है ?
समय ने कृष्ण के बाद पांच हजार साल बिता लिये हैं। इसे दुर्भाग्य कहना होगा कि अब अनेक महाभारत की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी है। हर विकसित और विकाससील राष्ट्र ब्रह्मास्त्र के उपर बैठा है। अंधे परमाणु अस्त्रों पर और हालात अश्वत्थामा जैसे कि ये अस्त्र लौट कर तूणीर में न आ सकें।
पूरी की पूरी मानव जाति का अंत केवल एक संधान पर ही संभव है लेकिन कृष्ण कहां हैं ?
हम कितने मासूम हैं कि प्रतीक्षारत हैं कि कोई कान्हा आयेगा और हमारी लड़ाई लड़ेगा, क्योंकि उसने ही कहा था.... यदा यदा हि धर्मस्य... उसने यह भी कहा था कि ... कर्मण्येवाधिकारस्ते...।
कण कण में कृष्ण है, कण कण कृष्ण बन सकता है।
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न साधक:
न मुमुक्षंर्न वै मुक्त: इत्येषा परमार्थता

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