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Wednesday, August 4, 2010

सपने ना दिखाये सरकार


हिंदी का एक बड़ा पुराना नाटक है सत्य हरिश्चंद्र। जब अंग्रेजियत का भूत बच्चों पर सवार नहीं था और मेले में वे ..करनी-भरनी... का चित्र समूह देखकर डर जाते थे और गलत काम से तौबा करते थे, उस समय वह नाटक बड़ा हिट था। नाटक का क्लाईमेक्स कहें या सबसे मार्मिक प्रसंग था कि एक ऋषि ने सपने में परम सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र से सारा राज दान में ले लिया था और राजा को सपरिवार बाजार में दासों की तरह नीलाम होने पर मजबूर कर दिया था। उस सपने की बड़ी दुःखद परिणति थी पर वह एक झटके से समाप्त भी हो जाती हे। ... और राजा वास्तविकता के धरातल पर आ जाते हैं।
दरअसल, वास्तविकता और स्वप्न के बीच एक धुंधली परत है और इस नाटक के दर्शक और कथा के पात्र वास्तविकता और स्वप्न में अंतर करना मुश्किल पाते हैं। ख्यालों में ख्वाब देखने की स्थिति विचित्र होती है।
एक बड़ा मशहूर गीत है,
देखा एक ख्वाब तो सिलसिले हुए,
दूर तक निगाह में हैं गुल खिले हुए
विश्व की महाशक्ति होने का स्वप्न साकार करने में लगे देश के सपने काम होने के पहले ही एक के बाद एक आघात झेल रहे हैं। एक सपना चूर-चूर होता है, फिर उसे समेटने के क्रम में हम पाते हैं कि सपने के अंदर भी एक सपना है। परत-दर-परत, स्वप्न और दुस्वप्न के बीच हकीकत भी सपने सी लगती है।
केसर की क्यारियों में आग लगी है, देश का मुकुट उस आंच से पिघल रहा है। कश्मीर की अशांति सरकारी तंत्र को झकझोर कर जगा रही है, पर सरकार इसे दुःस्वप्न मानकर फिर सोने जा रही है। उभरती महाशक्ति की बेकसी बुरा सपना है या हकीकत ? उत्तर पूर्व में मणिपुर की बेबसी के दो महीने हो जाने पर हम जागे और बीस दिन में फिर कहीं खो गए।
छत्तीसगढ़ में नक्सली बार-बार हमारे सुरक्षा बलों पर घातक चोट करते हैं। हर हमले के बाद बहस, सख्त कार्रवाई, बातचीत जैसे शब्दों के जाल बुने जाते हैं और उसी जाल में अपने आप को फांस सरकारें सपने में समाधान ढूंढ़ती हैं। बुधवार को कई मुठभेड़ें हुईं और जवान भी मारे गए। पिछली प्रक्रिया फिर दुहराई जाएगी। दुनिया की किसी महाशक्ति की छाती पर लाल आतंक का झंडा ऐसे नहीं फहरता। पिछले कुछ महीनों से सारा देश एक सपना देख रहा है।

अक्तूबर में दिल्ली में होने वाले कॉमनवेल्थ खेलों का आयोजन हम नए उभरते भारत के गौरव के अनुरूप कर पाते हैं या नहीं। जब भी स्टेडियम या अन्य निर्माण कार्यो के पूरा नहीं हो पाने या बारिश के बाद निर्माण की कमियां उजागर होने की खबरें आती हैं, अनिष्ट की आशंका से देशवासियों के ख्वाब टूट जाते हैं।
ऐसे में इस आयोजन को लेकर कांग्रेस सांसद मणिशंकर अय्यर व ओलिंपिक संघ प्रमुख सुरेश कलमाडी में अलग विवाद छिड़ गया है। हमारे देश में कॉमनवेल्थ या अन्य महत्वपूर्ण खेल मुकाबलों के आयोजन के पक्ष में भी उतने ही प्रबल तर्क हो सकते हैं, जितने विरोध में। यह सही है कि भारत जैसे देश में डेढ़ हजार करोड़ रुपए से इन खेलों के आयोजन के बजाय और भी कई जरूरी काम किए जा सकते हैं। लेकिन यह भी सपना है और उसकी करवट में छिपा दुःस्वप्न है कि भ्रष्टाचार के शीर्ष पर बैठे इस देश में क्या यह सपना भी पूरा हो सकता है ? राष्ट्रमंडल खेलों के बहाने देश की राजधानी को चमचमाने वाले सपने आज दिल्ली की खुदी सड़कों में दफन हो रहे हैं। कुछ सपने स्टेडियम की दरकीं छतों से इस बरसात में बूंद-बूंद कर रिस रहे हैं।
भ्रष्टाचार का ऐसा नंगा नाच पहली बार नहीं हुआ। इन खेलों को देश की मर्यादा और गर्व के साथ जोड़कर सारी दुनिया के सामने हम सच में नंगे हो गए या एक बुरा सपना है।
देश के आठ राज्य अफ्रीका के 26 सबसे गरीब देशों से भी गरीब हैं। यह हकीकत है तो फिर आर्थिक महाशक्ति का दंभ सपना है। गरीबी रेखा से ऊपर वालों की रसोई सूख रही है, नीचे वालों के साथ अब प्रणव मुखर्जी का हाथ नहीं।
पर दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो लगता है कि सरकार जो कर रही है, वह उससे भी बेहूदा मजाक है। महंगाई से त्रस्त जनता को कभी कोरे आश्वासन तो कभी व्यंग्यात्मक लहजे में मंत्रीगणों की झिड़की सुननी पड़ रही है। अगले दो तीन महीनों में स्थिति में सुधार होगा, ऐसा कहकर प्रधानमंत्री आम आदमी को सब्जबाग दिखाते हैं। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा अंतरराष्ट्रीय बाजार का हवाला देते हैं तो कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार निहायत गुस्से में कहते हैं कि वो कुछ नहीं कर सकते और महंगाई को जब कम होना होगा, तब वह स्वयं कम हो जाएगी।
जिस देश में आज भी लाखों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं, वहां लाखों टन अनाज खुले में सड़ रहा है। मानसून से पहले ही सरकार को आगाह करने के बाद भी ऐसा कुछ नहीं किया जा सका कि उसे सडऩे से बचाया जा सके।
अर्थशास्त्र का बुनियादी सिद्धांत कहता है कि मांग और पूर्ति के बीच का अंतर ही मूल्य निर्धारित करता है। मतलब ये कि अगर किसी वस्तु की मांग आपूर्ति से ज्यादा हो तो उसकी कीमत ज्यादा होती है और अगर आपूर्ति ज्यादा हो तो कीमत खुद-ब-खुद घट जाती है। कीमत बढ़ाने के लिए कई तत्व अक्सर जमाखोरी करते हैं या माल गोदाम में छुपाकर रखते हैं। फिर बढ़ी कीमतों पर बेचते हैं। जमाखोरी अपराध है। इस लिहाज से खाद्य मंत्रालय ने जो कुछ किया, वह किसी अपराध से कम नहीं। लेकिन जमाखोरी से भी बड़ा अपराध है अनाज को सडऩे देना। इस अपराध की सजा अगर न्यायालय चुनाव दूर हैं, सो हकीकत से हाथ मिलाइए। सपने आखिरी सालों में दिखाए जाएंगे।

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