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Tuesday, September 7, 2010

भ्रष्टाचार, गरीबी और रीयल इकॉनमी

कामनवेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार की लगातार खबरें मिल रहीं हैं, लेकिन उसके जिम्मेदार लोग बड़े इत्मीनान से टहल रहे हैं। यह हमारे सिस्टम की सबसे बड़ी नाकामी है कि गलत काम करने वालों के मन में किसी तरह का खौफ नहीं है। अगर आप गरीब आदमी हैं और आपने कोई छोटा-मोटा जुर्म किया है, तो आपको तुरंत सजा मिल जाएगी, लेकिन अगर आप रसूखदार हैं और आपने अरबों रुपये का हेरफेर किया है, तो आपके खिलाफ जांच बैठ जाएगी। इससे भी दुख का विषय है कि प्रधानमंत्री जो अर्थशास्त्री भी हैं, ने सोमवार ( छह सितंबर) को फरमाया कि देश में 37 प्रतिशत गरीब (भुक्खड़) हैं उन्हें सरकार मुफ्त नहीं खिला सकती। एक तरफ तो यह हाल है और दूसरी ओर घोटालों पर घोटाला करें, अरबों डकार जाएं और अगर आप सरकारी कर्मचारी हैं, तो आपको सस्पेंड करके आपके खिलाफ जांच बैठा दी जाएगी। थोड़े वक्त बाद जांच में अपने रसूख का इस्तेमाल करके रसूखदार व्यक्ति निर्दोष साबित हो जाता है, जबकि सरकारी कर्मचारी दोबारा बहाल कर दिया जाता है। हजारों में से एक केस में अगर किसी की नौकरी भी चली जाए, तो भी वह घपलों-घोटालों से इतना पैसा कमा चुका होता है कि उसे उस नौकरी की कोई जरूरत नहीं रह जाती। जनहित में मुकदमा वापस लेने का भी प्रावधान किया गया है, जिसका इस्तेमाल बाकायदा रसूखदारों और राजनेताओं को फायदा पहुंचाने के लिए किया जाता है। यह छोटा सा आख्यान केवल यहां इसलिये कहा गया कि पैसा सबसे ताकतवर है।
पैसा ही पावर है लेकिन पैसे को लेकर कुछ मिथक भी हैं। जहां पावर आती है, वहां किस्से भी बनते हैं। लिहाजा एक पापुलर इकनामिक्स ने असली अर्थशास्त्र की जगह ले रखी है और यह इतना पावरफुल है कि समाज के कई फैसलों पर असर डालता है। तो पैसे से जुड़ा सबसे बड़ा मिथक यह है कि जब किसी समाज में कुछ लोग बहुत अमीर होने लगते हैं, तो गैरबराबरी में इजाफा होता है।

इन दिनों दुनिया के सबसे नामी अमीर वॉरेन बफेट और बिल गेट्स ने एक मुहिम शुरू की है, जिसके तहत अमरीका के सबसे अमीर लोगों से कहा गया कि वे अपनी दौलत का आधा हिस्सा जरूरतमंदों की भलाई के लिए दान कर दें। इन अमीरों के पास बेहिसाब दौलत है। जिन कंपनियों को वे चलाते हैं, उनका कारोबार कई देशों की जीडीपी से ज्यादा बैठता है। इनके दान का जो आंकड़ा बनेगा, वह जल्द ही किसी भी इंटरनेशनल एजेंसी को पीछे छोड़ देगा। अमरीका के बाद बफेट और गेट्स इस मुहिम को सारी दुनिया में फैला रहे हैं। उन्होंने चीन के चुनिंदा 50 अरबपतियों को 29 सितम्बर की रात के खाने पर बुलाया है लेकिन खबर है कि उनमें कम ही लोगों ने इस आमंत्रण को स्वीकार किया है। बहुत से लोगों का रिएक्शन इस पर यह रहा है कि ये लोग कोई तीर नहीं मार रहे, पब्लिक का पैसा पब्लिक को ही लौटा रहे हैं।

देश का बड़े से बड़ा उद्योगपति पब्लिक के पैसे से अरबपति बन जाता है। इनकी दौलत दरअसल देश या समाज की ही दौलत है, क्योंकि जब कोई शख्स पैसा बनाने लगता है, तो वह समाज की कुल दौलत में में अपना हिस्सा बढ़ा लेता है, जबकि दूसरों का घट जाता है। इस बात का रोना तो मीडिया में भी अक्सर रोया जाता है कि देश की कुल दौलत का 80-90 फीसदी हिस्सा 10-20 फीसदी अमीरों के पास है, जबकि बाकी 10-20 फीसदी दौलत 80-90 फीसदी आबादी को मयस्सर हुई है।
रीयल इकनामिक्स में दौलत कोई स्थिर चीज नहीं है। वह उद्यम, पूंजी, जोखिम, श्रम और कच्चे माल से पैदा होती है और लगातार बढ़ती रहती है। लिहाजा ऐसा नहीं है कि जब कोई शख्स अपनी उद्यमिता से दौलतमंद होने लगता है, तो वह दूसरों की दौलत छीनता है। वह नयी दौलत पैदा करता है। इससे गैरबराबरी दिखने लगती है, क्योंकि जो लोग इस तरक्की में शामिल नहीं हुए हैं, वे इनकम के दूसरे छोर को पुराने लेवल पर ही रोके रखते हैं। लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकाला जाना चाहिए कि गैरबराबरी दूर करने के लिए पहले छोर पर इनकम में बढ़ोतरी को रोक दिया जाए। जो लोग ये मानते थे कि बराबरी लाने के लिए अमीरों की दौलत छीनकर सभी को बराबर बांट दी जाए, उन्हें हिस्ट्री ने ठिकाने लगा दिया है। इसलिए हमें उन लिस्टों का स्वागत करना चाहिए, जो देश में बढ़ते दौलतमंदों का हिसाब देती हैं।
अगर देश की 90 फीसदी दौलत 10 प्रतिशत लोगों के हाथ में है, तो इसका मतलब ये है कि हमारे लोगों ने जबर्दस्त दौलत पैदा की है, उन्होंने उद्यमिता के रेकॉर्ड कायम कर लिए हैं। और अगर चंद लोग इतने कामयाब हो सकते हैं, तो बाकी 90 फीसदी की जरा सी भी मेहनत कमाल दिखा सकती है।
दौलत पैदा होने से गैरबराबरी नहीं आती। गैरबराबरी इसलिए है कि ज्यादातर आबादी को दौलत पैदा करने का मौका नहीं मिल रहा। या फिर गैरबराबरी बढ़ती है ऐसी कमाई से जिस पर मेहनत नहीं लगती। ट्रेड और कामर्स में ऐसा तबका होता है, जो मुनाफाखोरी करता है, लेकिन उसकी मुनाफाखोरी आमतौर पर उतनी बुरी नहीं होती, जितनी सिस्टम को चलाने वालों की मुनाफाखोरी, जिसे हम करप्शन या भ्रष्टाचार का नाम देते हैं।
रीयल इकनामिक्स में भी भ्रष्टाचार का सिलसिला आखिर में वहां रुक जाएगा, जहां भ्रष्टाचार के चांस ही नहीं होंगे, यानी सबसे गरीब पर। हर भ्रष्टाचार की मार उसे झेलनी पड़ेगी, लेकिन ऊपर के तबके भी अपनी करनी से अछूते नहीं रहेंगे। उन्हें खराब सर्विस, ज्यादा टैक्स, ज्यादा खर्च, क्राइम और अदालती देरी के तौर पर इसकी कीमत अदा करनी होगी। भ्रष्टाचार के बारे में एक मजेदार मान्यता यह भी है कि बेईमान का पैसा देश के काम ही आता है। दौलत काली हो या सफेद, अगर वह उपभोग में लगती है, तो अर्थव्यवस्था को आगे ले जाती है, लेकिन भ्रष्टाचार की दौलत अक्सर दुबकी रह जाती है। और अगर वह चलन में आती है और किसी तरह नए रोजगार पैदा करती है, तो भी उसकी कीमत बाकी समाज उन तकलीफों के तौर पर भुगत चुका होता है, जिनका जिक्र अभी मैंने किया। कुल मिलाकर यह हारा हुआ खेल है।
दिक्कत यह है कि अमीरों की दौलत को लेकर जितनी मिर्च हमें लगती है, उतनी भ्रष्टाचार को लेकर नहीं। पापुलर इकनामिक्स इस तरह बेईमानों के पक्ष में काम करने लगता है और उन लोगों को विलेन बना देता है, जो वाकई देश को आगे ले जा रहे हैं। यह एक गरीब देश की कुदरती नफरत की वजह से हो सकता है या फिर लेफ्टिस्ट खयालों का असर, जिन्हें पालिटिकल अखाड़े में तो सपोर्ट नहीं मिल सका, लेकिन पापुलर आइडियालाजी में किसी तरह हिट हो गए। इक्कीसवीं सदी में सबसे तेज रफ्तार देश बनने जा रहे भारत को इस पापुलर इकनामिक्स से पल्ला झाड़ लेना चाहिए।

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