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Thursday, September 16, 2010

तरुणाई की कुंठा और हमारा देश


कश्मीर से कर्नाटक तक चाहे सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकते नौजवानों की टोली हो या नक्सली माओवादी का रूप धरे युवकों का गिरोह, सब जगह नौजवानों में कुंठा दिख रही है। मंदी की मार के बीच उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं का रोजगार, घाटे का सौदा होती खेती और विकास के नाम पर हस्तांतरित होते खेत, पेट भरने व सुविधाओं के लिए शहरों की ओर पलायन करते ग्रामीण युवाओं की ये दिक्कतें क्या सरकार की समझ में हैं ?
क्या भारत के नौजवानों को केवल रोजगार चाहिए? उसके सपने का भारत कैसा हो ? वह सरकार और समाज में कैसी भागीदारी चाहता है ? ऐसे ही कई सवाल तरुणाई के इर्दगिर्द टहल रहे हैं, लगभग अनुत्तरित से।

मीडिया हो या सरकार, जिसने भी युवा वर्ग का जिक्र किया, तो अक्सर उसका ताल्लुक शहर में पलने वाले कुछ सुविधा-संपन्न लड़के-लड़कियों से ही रहा। फर्राटेदार हिंगरेजी और पश्चिमी सभ्यता का अधकचरा मुलम्मा चढ़ाए युवा। यह बात भुला ही दी जाती है कि इनसे कहीं पांच गुनी बड़ी और इनसे बिलकुल भिन्न युवा वर्ग की ऐसी भी दुनिया है, जो देश के पांच लाख गांवों में है। तंगी, सुविधाहीन व तमाम उपेक्षाओं की गिरफ्त में फंसी एक पूरी कुंठित पीढ़ी। गांव की माटी से उदासीन और शहर की चकाचौंध छू लेने की ललक साधे युवा शक्ति।
भारतीय संस्कार, संस्कृति और सभ्यता की महक अभी कहीं शेष है तो वह है ग्रामीण युवा पीढ़ी। यथार्थ, जिंदादिली और अनुशासन सरीखे गुणों को शहरी सभ्यता लील चुकी है। एक तरफ ग्रामीण युवक तत्पर, मेहनती, लगनशील व विश्वसनीय हैं तो दूसरी ओर नारों, हड़तालों और कृत्रिम सपनों में पले-बढ़े शहरी युवा। वस्तुत: कुशल जन-बल के निर्माण के लिए ग्रामीण युवक वास्तव में कच्चे माल की तरह हैं, जिसका मूल्यांकन कभी ठीक से किया ही नहीं गया।

एक तरफ ऐसी संस्कृति, जहां होश संभालते ही किशोरों को ढोल की थाप पर आल्हा का पंचम सुनाई पड़ता है 'जाके बैरी चैन से सोये ओकर जियल हऽ धिक्कार...। ऐसे में कुछ मतलब परस्त लोग समाज और सरकार को बैरी के रूप में प्रोजेक्ट कर पूरी युवा पीढ़ी की तरुणाई की ऊर्जा को विरोधी बना दे रहे हैं। किसी के हाथ में पत्थर तो कहीं ए के रायफलें या इंसास।
यह विडंबना ही है कि ऐसे कई मुद्दे हैं, जो युवाओं को गांव की जिंदगी से काटते हैं और जिनके चलते उनका मानसिक धरातल जमीन छोड़ रहा है। गांव व शहर के बीच सुविधाओं की चौड़ी खाई बैरी हो गयी है। अपने घर-गांव में न तो पारंपरिक रोजगार की गुंजाइश दिखती है और न ही जीविकोपार्जन के नए अवसर गांव तक आ रहे हैं। ऐसे में गांव के युवाओं को अपनी ही माटी से जैसे घिन आने लगी है। त्रिशंकु- सी हालत है, एक तरफ है सहज ग्रामीण संस्कार और दूसरी ओर है शहरी रंगीनियों को पाने की ललक। ऐसे में भटकता हुआ ग्रामीण युवा ख्वाहिशों के घूंट पी कर अपनी राह की खोज में खुद खो जाता है। ये संकेत घातक हैं। कहीं भारतीय आत्मा अपनी जड़ें न छोड़ दे।

लड़के तो फिर भी विषम हालातों से जूझ कर अपने लिए कुछ पाने में सफल हो जाते हैं परंतु किशोरियां तो घर की चहारदीवारी में ही कैद रह जाती हैं। कुछ को दर्जा-दो दर्जा तक पढऩे स्कूल भेजा गया तो ठीक वरना रंगीन युवावस्था बर्तन मांजने या गोबर-चारा करने में गुम हो जाती है।
गांवों में बसे नवयुवकों की उपेक्षा से राष्ट्रीय स्तर पर भी कई समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। देश का चाहे कोई भाग हो, हथियार थामने वाले हाथों में युवकों की संख्या ही ज्यादा है। गांवों में विकास को शहरी मापदंड से मापने की अपेक्षा उसे आस-पास के वातावरण के अनुकूल बनाना होगा। युवाओं की कुंठा को कम करने के बारे में सरकार को सोचना होगा वरना कश्मीर से कन्या कुमारी तक और असम से अमरनाथ तक मुश्किलें हर कदम पर मिलेंगी।

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