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Monday, September 20, 2010

कश्मीर पर देश के युवक भी आगे आयें


राहुल गांधी ने कश्मीर मसले पर उमर अब्दुल्ला का समर्थन किया है। ऐसे मौके पर जबकि कश्मीर जल रहा है और वहां के हालात का जायजा लेने और समस्या के समाधान सुझाने के लिये सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का फैसला सरकार ने किया है, यह समर्थन कांग्रेस के लिये लाभकारी तो होगा ही नहीं और एक तरह से सरकार की मंशा के रूप में इसका राजनीतिक लाभ भी उठाया जा सकता है। सरकार सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल कश्मीर भेज रही है और जब वह दल वहां से लौट कर आयेगा तब उसकी सिफारिशों पर विचार के लिये एक बार फिर सर्वदलीय बैठक होगी। यह घटना 1989-90 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के सरकार के समय की घटना की याद ताजा कर दे रही है। उस समय आरक्षण के बवाल को शांत करने के लिये सर्वदलीय बैठक बुलायी गयी थी और उससे सुझाव मांगे गये थे। उस समय स्व. राजीव गांधी विपक्ष के नेता थे और उन्होंने तथा उनके सहयोगियों ने इस अवसर का लाभ उठाया। उन्होंने ऐसी चाल चली कि लोगों का गुस्सा और उफन गया। लोगों की आंखों में सरकार की साख बिल्कुल गिर गयी। उस समय भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार का समर्थन कर रही थी। 1989- 90 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने खेल बिगाडऩे वाली भूमिका निभायी। अब भाजपा विपक्ष में है। अब लालकृष्ण आडवाणी के सुझाव से भाजपा भी कश्मीर के हालात का राजनीतिक लाभ उठाने की चेष्टा में है और मनमोहन सिंह सरकार की साख मिट्टी में मिला देना चाहती है। पिछले चुनाव के दौरान भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर अपने अभियान का शंख फूंका था। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अब तक का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री घोषित किया था। लेकिन इसका कोई असर नहीं पड़ा। अब उसकी कोशिश है कि जम्मू कश्मीर के ताजा हालात के लिये प्रधानमंत्री की नरम नीतियों और राज्य सरकार की नाकामियों को दोषी बताया जाय। भाजपा यह भी दिखाना चाहती है कि वह जम्मू-कश्मीर में सेना के अधिकारों की प्रबल समर्थक है। सेना वहां हारने वाली जंग लड़ रही है और उसके हाथ बांधने के प्रयास हो रहे हैं। भाजपा का यह सोच है कि कश्मीर जैसे संवेदनशील मसले को माध्यम बना कर वह पिछले चुनाव में हार को विजय में बदल सकती है। भाजपा की राष्ट्रभक्ति पर किसी को संदेह नहीं है। वह सबसे ज्यादा राष्ट्रभक्त है। लेकिन उसकी सक्रियता और बयानों के पीछे उसकी राष्ट्रभक्ति ही डायनामिक्स नहीं है। उसके पीछे राजनीतिक लोभ भी बड़ा कारण है। दलीय राजनीतिक स्वार्थ के प्रदर्शन से कई प्रकार के संदेश जाते हैं। 1989-90 में आरक्षण के लिये गठित सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल द्वारा प्रदर्शित दलीय स्वार्थ से आतंकियों और अलगाववादियों को संदेश मिले कि ये नेता संकट के समय भी एक नहीं हो सकते और फलत: पंजाब में आतंकवाद ने जोर पकड़ लिया। इस बार भी सर्वदलीय बैठक में भाजपा फौज के अधिकार के समर्थन में ध्वजा उठाये रखी और कांग्रेस तथा माकपा यह सोचती रही कि जून के बाद से स्थितियां बहुत बदल गयी हैं। स्थितियों में गुणात्मक परिवर्तन हो गये हैं इसलिये इसे खत्म करने के लिये गुणात्मक अप्रोच की जरूरत है जिसके लिये दृढ़ता जरूरी है और जरूरी है नयी भाषा तथा नयी शब्दावली की, ताकि जो लोग दूर जा चुके हैं वे करीब आ सकें। इस मामले में कांग्रेस-वामपंथी दल के ठीक विपरीत भाजपा खड़ी है।
उमर अब्दुल्ला को समर्थन करने से बेहतर होता कि राहुल जी सरकार के सर्वदलीय प्रयासों के अलावा अपने नेतृत्व में कांग्रेस (ई) के नवयुवकों का एक दल कश्मीरी युवकों से बातें करता। इसके तहत पहले कदम के रूप में श्रीनगर में सर्वदलीय युवा सम्मेलन का आयोजन किया जाता। उसकी कार्यसूची में दो ही आइटम हों, पहला कि कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति और दूसरा कि नौजवानों के गुस्से को कम कैसे किया जाय। राजनीतिक दलों की युवा इकाई के कश्मीरी युवक इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। कश्मीर में जो स्थिति है वह देश भर के युवकों के लिये एक भावनात्मक चुनौती है। हम सभी चाहे किसी राजनीतिक दल से जुड़े हों या पेशेवर आदमी हों, कश्मीर की स्थिति को समझने में नाकाम हो गये हैं। कश्मीर के ताजा मामलों को समझने में सरकार और पेशेवर लोगों की नाकामी तथा उसके प्रति देश भर में संवेदना में कमी को देख कर ऐसा लगता है कि कैसे यहां आजादी की जंग लड़ी गयी होगी।

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