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Saturday, October 30, 2010

अरुंधति राय बनाम राष्ट्र


क्या अरुंधति राय राजद्रोह की दोषी हैं ? क्या विख्यात लेखिका और सोशल वर्कर अरुंधति राय ने अपने भाषणों और कामकाज से जम्मू कश्मीर के आंदोलनकारियों के प्रति सहानुभूति दिखाकर और उनके आंदोलन को समर्थन देकर कुछ ऐसा काम किया है जिससे उन पर राष्ट्रद्रोह का मामला बनता है ?
अगर सरल परिभाषा की बात करें या सहज जानकारी की बात करें तो कह सकते हैं कि राष्ट्रद्रोह (सीडेशन) का अर्थ होता है सत्ता के खिलाफ विद्रोह और राष्ट्र के प्रति विश्वासघात का मतलब होता है राष्ट्र की सम्प्रभुता से अपने सम्बंधों को खत्म करना। या फिर ऐसे कह सकते हैं कि ..सीडेशन.. अपने देशवासियों को सत्ता के खिलाफ भड़काना है और ..ट्रीजन.. देश के विरुद्ध सक्रिय तत्वों को गुप्त रूप से मदद पहुंचाना है। जहां तक अरुंधति राय का प्रश्न है तो उन्होंने घाटी में विद्रोह या अपघात या आतंकवाद की शुरूआत नहीं की।
अरुंधति ने किया केवल यह कि घाटी में फैलते असंतोष पर ध्यान दिया,उसका विश्लेषण किया और फिर जिन्होंने वहां हथियार उठाया है, उनके प्रति सहानुभूति जाहिर की। इसलिये उनके खिलाफ देशद्रोह का मामला प्रमाणित करना शायद कठिन हो जायेगा। अरुंधति के इस ताजा अभियान का मुकाबला कश्मीर और देश के अन्य भागों में जनता के विचारों में बदलाव लाकर करना होगा, न कि उन्हें गिरफ्तार कर और मामला चला कर। उनके खिलाफ कठोर कार्यवाही से बचना होगा।
लेकिन कश्मीरियों के दुःखों को दूर करने का नुस्खा बताने वाली बेहद चालाक महिला अरुंधति से एक सवाल है कि क्या अगर कश्मीर मतांतरित न हुआ होता, हिंदू या बौद्ध ही बना रहता तो क्या आज कश्मीर समस्या होती?
हां, कश्मीर में समस्याएं तो होतीं, रोजगार और गरीबी की,अशिक्षा की और विकास की, जैसी कि शेष भारत में हैं,लेकिन कोई कश्मीर-समस्या न होती। राजनीति जब ईश्वर-अल्लाह के नाम पर चलने लगती है तो जाहिर है वह हमें आज की समस्याओं का समाधान नहीं देती।
क्या धर्म ने पाकिस्तान की समस्याओं का समाधान कर दिया है ?
नहीं, क्योंकि धर्म तो जिंदगी के बाद का रास्ता बनाता है।

हमें मालूम है कि कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन की असलियत क्या है ? अगर कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे में चला जाता तो वही सब कुछ पाकिस्तानी भू-स्वामी वर्ग और पाकिस्तानी सेना द्वारा वहां किया जाता, जो कबाइलियों ने 1947 में प्रारंभ किया था। अरुंधति को शायद मालूम होगा कि हुर्रियत के बिलाल गनी लोन ने स्वीकार किया है कि ये पैसों पर बिकी कायरों की जमातें हैं। पाकिस्तान का समापन किस रूप में होगा,इसका परिदृश्य सामने आने लगा है। कश्मीर को अपनी आखिरी उम्मीद मानकर वह किसी भी तरह वार्ताओं का दौर प्रारंभ करना चाहता है। पाकिस्तान से वार्ता करना तो उसके आतंकी और साजिशी स्वरूप को मान्यता देना है। अरुंधति ने अगर इतिहास पढ़ा हो तो शायद उन्हें याद होगा कि आजादी के आंदोलन के अंतिम दौर में कश्मीर को लेकर ब्रिटिश सोच बदल चुका था। यही सोच समस्या का कारण बना। माउंटबेटन उत्तरी कश्मीर के स्ट्रेटेजिक महत्व से वाकिफ थे। उन्होंने सेनाओं को जानबूझकर उड़ी से डोमेल, मुजफ्फराबाद की ओर नहीं बढऩे दिया। वह चाहते थे कि गिलगिट बालतिस्तान का क्षेत्र पाकिस्तान के कब्जे में रहे, जिससे आगे चलकर सीटो, सेंटो संगठन द्वारा उसका उपयोग सैन्य अड्डों के लिए किया जा सके। कश्मीर मामला संयुक्त राष्ट्र में ले जाने के प्रस्ताव में उनकी मुख्य भूमिका थी।
शेख अब्दुल्ला जनमत संग्रह के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जनमत संग्रह के प्रस्ताव ने कश्मीर को एक ऐसी..ओपेन एंडेड स्कीम.. का रूप दे दिया, जिसमें कभी भी कोई भी निवेश कर सकता है। कश्मीर की इन नकली समस्याओं के कारण जो असल समस्याएं शिक्षा, रोजगार और विकास की हैं, पीछे रह गई हैं। इस जहालत के माहौल ने उन्हें राष्ट्रीय नागरिक नहीं बनने दिया।
हम सशक्त देश हैं, पर कमजोरों की तरह व्यवहार करते हैं।
गठबंधनों से आ रही सत्ताएं हमारी कमजोरी का मूल स्रोत बन गई हैं।

यहां अरुंधति से हम पूछना चाहेंगे कि आखिर कश्मीर समस्या क्या है ? क्या जो समस्या कश्मीर की है वही जम्मू की भी है ? क्या लद्दाख भी वही सोचता है जो घाटी के हुर्रियत नेता चाहते हैं? जो बात जम्मू के लिए कोई समस्या नहीं वह कश्मीर घाटी के चालीस लाख लोगों के लिए समस्या क्यों है ? अरुंधति को मालूम होना चाहिये कि यह आजादी की लड़ाई है ही नहीं। यह मूलत: एक मनोवैज्ञानिक समस्या है.. हिंदू भारत.. के साथ रहने की।
अरुंधति जैसे लोगों की साजिश के कारण वे हमारे 15 करोड़ मुसलमानों से अपने को अलग समझते हैं। कश्मीर घाटी के लोगों को अलगाववादी मानसिकता के हवाले कर दिया गया है। यह मनोविज्ञान जनमत संग्रह के अनायास स्वीकार से पैदा हुआ है। इतिहास में कहीं भी और कभी भी वोट देकर राष्ट्रीयताओं पर निर्णय नहीं हुआ।
मनोवैज्ञानिक समस्याओं का इलाज आपरेशन नहीं होता और न गिरफ्तारियां होती हैं । सशक्त राष्ट्र की तरह व्यवहार करना हमें सीखना है। युद्ध अवश्यंभावी है तो युद्ध होगा, लेकिन उसकी आशंकाओं से कमजोरों की तरह व्यवहार करना हमें समाधान की ओर नहीं ले जाता। अरुंधति जैसी दो कौड़ी के लोगों को इस देश पर भारी पडऩे से रोकना होगा और सियासत इसका इलाज नहीं है।

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