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Saturday, October 30, 2010

और बढ़ेगी महंगाई


ग्रामीण गरीबों के लिए मंदी का समय और भूख पर्यायवाची हैं। मौसमी मंदी वह समय होता है जबकि जमा किया हुआ अनाज समाप्त हो जाता है और नयी फसल आने में थोड़ा समय होता है। खाद्य पदार्थों के मूल्य में उतार-चढ़ाव, संस्थागत ऋण तक पहुंच का न होना और भंडारण की अपर्याप्त सुविधा के कारण किसानों को बाध्य होना पड़ता है कि वे पूर्व में लिए गए ऋण की अदायगी और फसल को कीड़ों इत्यादि से नष्ट होने से बचाने के लिए अपनी पैदावार (फसल) को कम कीमत पर बेच दें। इसी किसान को कुछ महीनों बाद बाजार में अधिक दाम चुकाकर पुन: अनाज खरीदना पड़ता है।

लंबे समय से भारत ऐसा देश रहा है, जहां एक तरफ तो संपन्नता और समृद्धि की चमक-दमक है तो दूसरी तरफ घोर निर्धनता है। हाल के कुछ दशकों में यह फासला और बढ़ा है। एक छोटा तबका आला दर्जे की जीवनशैली का आनंद उठा रहा है, वहीं करोड़ों लोग विकास की दौड़ में पीछे छूट गए हैं।
हमारे यहां दुनिया के सबसे अमीर लोगों की फेहरिस्त में शामिल धनकुबेर हैं तो लगभग दो करोड़ लोग भूखे पेट सोने को भी मजबूर हैं। हमारे लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं। इनमें भी बीस फीसदी ऐसे हैं, जो पर्याप्त पोषक आहारों के अभाव में पूर्णत: विकसित नहीं हो पाते। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने आगामी 2 नवंबर को आने वाली नयी मौद्रिक नीति से पहले जारी अपने आर्थिक विश्लेषण में खाद्य पदार्थों की महंगाई को लेकर गंभीर चिंता जताई है। उसके मुताबिक यह ढांचागत महंगाई है, जिसका असर अभी की तरह आने वाले महीनों में भी सभी चीजों के महंगा होते जाने के रूप में दिखाई पड़ेगा।
सरकार ने अब तक गेहूं, चावल, दाल, चीनी, सब्जी वगैरह की महंगाई थामने के जो भी उपाय किए हैं, वे सब के सब बेअसर साबित हुए हैं। इससे संदेह होता है कि वह इस सवाल को लेकर चिंतित भी है या नहीं। रोजाना सौ रुपए या उससे कम की कमाई में जीने वाली देश की लगभग तीन चौथाई आबादी की ज्यादातर आय खाने और तन ढकने के कपड़ों पर ही खर्च हो जाती है। पिछले साल दिसंबर में 20 प्रतिशत की सीमा पार कर जाने के बाद फिलहाल 15 प्रतिशत से ऊंची चल रही खाद्य पदार्थों की महंगाई आबादी के इस हिस्से की हैसियत बढऩे की नहीं, उसके तबाह होने की सूचना दे रही है।
आरबीआई ने देश में प्रोटीन की आपूर्ति बढ़ाने के लिए सरकार से दालों के आयात या कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का सहारा लेने की अपील की है। खुद को आम तौर पर पैसे-कौड़ी की चिंताओं में ही व्यस्त रखने वाले रिजर्व बैंक के लिए सरकार को इस तरह का सुझाव देना कोई सामान्य बात नहीं है। इससे आने वाले दौर की उन समस्याओं की थाह मिलती है, जिसे ऊंची विकास दर की संकरी दूरबीन से देख पाना वित्तमंत्रियों के लिए संभव नहीं होता।
ऐसे अवसरों पर हमारे अर्थशास्त्री दिमाग के बजाय दिल से सोचें। वे एक ऐसे वैकल्पिक अर्थशास्त्र पर भी अपना ध्यान केंद्रित करें, जो अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप होने के साथ ही देश के आम जन के हित में भी हो।

खरीफ की फसलों का उत्पादन इस साल ऐतिहासिक होने का आकलन कई कृषि विज्ञानी पेश कर चुके हैं। इसके बावजूद बाजार में खाने-पीने की चीजों की कीमत कम होने का नाम नहीं ले रही है। यह खुद में एक असाधारण बात है। सरकार को देश की ऊंची विकास दर को लेकर अपनी पीठ थपथपाने के बजाय आम आदमी के सिर पर मंडरा रही इस आपदा का कोई निदान खोजना चाहिए।

भोजन से वंचित और कुपोषित आबादी की संख्या सरकार के अर्थशास्त्रियों द्वारा चिह्नित किए गए लोगों से कहीं ज्यादा है। यदि सरकार देशभर में किसानों से लाभकारी कीमतों पर खाद्य पदार्थ क्रय करती है, तो उसके पास वितरण प्रणाली के लिए खासी मात्रा में अनाज होगा। सरकार इसे जरूरतमंदों को आधी कीमतों पर मुहैया करा सकती है।
आज हमारे देश में पर्याप्त मात्रा में अन्न का उत्पादन होता है। ऐसे में सरकार यदि चाहे तो इस अन्न को हमारे एक अरब से भी ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का खर्च वहन कर सकती है। अलबत्ता अर्थशास्त्री इसके उलट सरकार को यह हिदायत देते हैं कि उसे अपने सार्वजनिक व्ययों पर लगाम लगानी चाहिए, या उसे खाद्य पदार्थ वितरित करने के बजाय कार्यों को प्रोत्साहन देने में निवेश करना चाहिए या सस्ता या मुफ्त भोजन मुहैया कराने से किसान उत्पादन के लिए प्रेरित नहीं होंगे।

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