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Thursday, November 11, 2010

ओबामा की यात्रा का कोई लाभ नहीं मिला


अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा तीन दिन भारत में रहे और इस दौरान पूरे देश की निगाहें उन पर रहीं और देशवासी उम्मीद करते रहे कि वे पाकिस्तान के बारे में कुछ ऐसा कहेंगे जो भारत को सकारात्मक लगेगा। पर उन्होंने ऐसा कहना तो दूर कुछ ऐसे संकेत भी नहीं दिये। आतंकवाद दोनों का कॉमन मुद्दा था, लेकिन दोनों की स्थितियों में अंतर है। ओबामा जब मुंबई के ताज होटल पहुंचे, तो उन्होंने 26/11 की घटना पर अफसोस जताया, लेकिन पाकिस्तान का नाम लेने से वे साफ बच गये। उन्होंने तालिबान, अल कायदा और अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमाओं पर आतंक के खात्मे पर खास बल दिया, लेकिन भारत में होने वाली सीमापार आतंकी गतिविधियों की चर्चा से बच गये। उनकी असल चिंता अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर चल रही गतिविधियों की है, न कि भारत-पाक सीमा पर चल रही गतिविधियों को लेकर। वह पाकिस्तान को अब भी अपने प्रमुख सहयोगी के रूप में स्वीकार करते हैं। ऐसे में समझ नहीं आता कि आखिर अमरीका, भारत का रणनीतिक साझेदार कैसे हो गया? हालांकि, इस यात्रा का अंत धमाकेदार रहा, क्योंकि ओबामा ने भारतीय सांसदों को संबोधित करते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के भारत के दावे का समर्थन किया। बहरहाल, अमरीका पाकिस्तान और चीन को भी साझेदार के रूप में देखता है। वास्तव में, इन दोनों मुल्कों के साथ उसकी सालाना रणनीतिक बैठक होती है, जिसमें से चीन के साथ होने वाली बैठक को काफी बड़ा आयोजन माना जाता है। इसलिए किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि ओबामा ने चीन और पाकिस्तान के खिलाफ जाकर भारत का समर्थन करने का फैसला किया है। बजाय इसके, वह चाहते हैं कि मौजूदा विवादों और तल्खी के पार जाकर सभी चारों देशों के लिए आगे की राह बेहतर बनायी जाय। उनका यह रवैया भारतीयों को रास नहीं आएगा, जो चाहते हैं कि पाकिस्तान को आतंकवादी देश करार दिया जाए।

ओबामा ने पाकिस्तान में बैठे कुछ तत्वों की आलोचना तो की है, लेकिन वह पाकिस्तान को पूरी अहमियत देते हैं क्योंकि इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ अमरीकी जंग में वह अहम सहयोगी देश है। वह इस्लामी आतंक के हर पहलू के खिलाफ खूब बोलते हैं, लेकिन भारत के लिए खतरा बनने वालों की तुलना में उन पर उनका ज्यादा ध्यान रहता है, जिनसे अमरीका को खतरा है। यह सही है कि वह पाकिस्तान और चीन के माथे पर बल डालने वाले कदम के तहत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सीट का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन वह अफगान- तालिबान के साथ समझौता भी कर सकते हैं, जिससे भारत को परेशानी होगी।
इससे यही सबक मिलता है कि भारत और अमरीका साझेदार हैं, दोस्त नहीं। उनके हितों के कुछ तत्व एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं, लेकिन उनके हित पूरी तरह एक नहीं हैं। ओबामा ने खुद संसद में भी इसे स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि ईरान और म्यांमार में लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के दमन के मुद्दे पर भारत काफी नरम रुख दिखाता रहा है। दोनों देशों के बीच मतभेदों का एक नाटकीय उदाहरण साल 2003 में सामने आया था, जब भारतीय संसद ने इराक पर अमरीकी हमले के खिलाफ एक सर्वदलीय प्रस्ताव पारित किया। अमरीका के साथ पाकिस्तान की दोहरी नीति से सभी वाकिफ हैं। पाकिस्तान, भारत के खिलाफ आतंकवाद का इस्तेमाल करता है और अफगानिस्तान में तालिबान को दोबारा मजबूत करना चाहता है। इसके बावजूद अमरीकी हथियारों, सामग्री और सैनिकों के अफगानिस्तान पहुंचने का इकलौता जरिया भी पाकिस्तान मुहैया कराता है, लिहाजा अमरीका के लिए उसका सामरिक महत्व भी है। इसके अलावा वह अब खुद भी इस्लामी आतंकवाद का शिकार बन गया है। हालांकि, इसके बावजूद आतंकवादी समूहों के लिए उसकी ओर से मदद अब भी जारी है।
यही बात भारत की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के संदर्भ में कही जा सकती है। उनके मुताबिक, अमरीका चाहता है कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होना चाहिए। जबकि इससे पहले वाशिंगटन में वह कह चुके थे कि संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता का मुद्दा पेचीदा है। दरअसल भारत का सुरक्षा परिषद में पहुंचना अकेले अमरीका के ही बस की बात नहीं है। केवल अमरीका के कहने से न तो सुरक्षा परिषद का विस्तार हो पाएगा और न ही भारत को स्थायी सीट प्राप्त हो पाएगी। हां, अलग से कुछ शर्तें ओबामा ने अवश्य ही जोड़ दी हैं, जिन्हें पूरा कर पाना भारत के बस की बात नहीं है। इसके बावजूद यदि भारत ऐसा करता है, तो उसके इन देशों के साथ द्विपक्षीय संबंध बिगड़ जाएंगे। उल्लेखनीय है कि ओबामा ने जो शर्तें जोड़ी हैं, उनमें से एक म्यांमार में मानवाधिकार उल्लंघन से जुड़ी है और दूसरी ईरान से। मतलब यह कि भारत यदि इन शर्तों का पालन नहीं करता, तो अमरीका अपने प्रयासों को विराम दे सकता है। यानी भारत आकर बराक ओबामा ने हमारे हित में कोई बड़ा कदम नहीं उठाया।

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