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Sunday, November 21, 2010

कहीं तो लगाम लगे?


देश में बाजारवाद और मुक्त व्यापार के कारण बहुतों के पास ढेर सारा पैसा आ गया है। पैसे के साथ विलास की प्रकृति ने जोर पकड़ लिया है। इसके कारण एक बड़ा वर्ग बड़ी - बड़ी गाडिय़ों का उपयोग करने लगा है। इन गाडिय़ों में ईंधन की खपत बेतहाशा है ओर पर्यावरण को भी ये गाडिय़ां हानि पहुंचाती हैं। यह एक तरह से आपराधिक भोगवाद है। आज बाजारवादी अर्थव्यवस्था अपने तमाम अंतरविरोधों के साथ तेज रफ्तार से बढ़ रही है। पूंजी संचय से निर्देशित बाजार विकास के अपने मानक और नेतृत्व के नए प्रतीक गढ़ रहा है। वैश्वीकरण के इस दौर में हमारे सार्वजनिक जीवन के लोकप्रिय नाम और व्यक्तित्व बाजारी उत्पादों के रूप में अपनी पहचान बना रहे हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि इन ब्रांड अम्बेसडरों का आम लोगों की जरूरतों और उनके सामाजिक सरोकारों से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। ब्रांड अम्बेसडर चाहे वे सिलवर स्क्रीन के महानायक हों या खेल के मैदान के हीरो, दिनभर किसी न किसी कंपनी का साबुन, टूथ पेस्ट, शैम्पू, अंतर्वस्त्र, मोबाइल फोन, मोटरसाइकिल, कार, चॉकलेट, बिस्किट, सौंदर्य प्रसाधन सामग्री आदि तरह-तरह की चीजें बेचते हुए दिख जाएंगे। अपने उत्पादों को बाजार में स्थापित करने के लिए समाज के लोकप्रिय और आकर्षक नामों का इस्तेमाल कॉरपोरेट विकास की विवशता है। भोगवाद को बढ़ाने में अपना भरपूर योगदान करने वाले इन ब्रांड एम्बेसडरों के प्रकटीकरण की यह परिघटना हालांकि पूरी तरह अर्थशास्त्रीय है, इसके बावजूद इसका एक पहलू राजनीतिक भी है।
अर्थशास्त्रीय कारणों के अलावा राजनीतिक नेतृत्व की विफलता भी ग्लैमर की दुनिया के इन बड़े नामों के बड़े ब्रांड अम्बेसडर या लोकप्रिय बनने में सहायक होती है। दरअसल हमारी मौजूदा राजनीति ऐसे आदर्श गढऩे में नाकाम रही है जो समाज के नये नायक या महानायक बना सकें। भ्रष्टाचार और घपलों-घोटालों के रंग में रंगी भारतीय राजनीति की इसी नाकामी का फायदा उठाकर निगमीकृत विकास की ताकतें फिल्मों और खेलों के नायकों की लोकप्रियता का दोहन कर रही हैं। भोगवाद कितनी तेज रफ्तार से बढ़ रहा है, इसे सिर्फ एक ही उदाहरण से समझा जा सकता है।
1991 के पहले देश में सालाना डेढ़ लाख मोटर कारें बिकती थीं, जबकि आज उनकी मासिक औसतन बिक्री एक लाख है। 1991 तक देश में फिएट और अम्बेसडर के अलावा सिर्फ मारुति कार बनती थी, जबकि आज दुनिया की लगभग हर बड़ी कंपनी भारत में गाडिय़ां बना रही हैं।
दुनिया के तमाम छोटे-छोटे देशों की जितनी कुल जनसंख्या है उससे कहीं ज्यादा तो हमारे देश में हर वर्ष मोबाइल फोन कनेक्शन बढ़ जाते हैं। इन आंकड़ों के सहारे तो हम कह सकते हैं कि इंडिया..शाइनिंग.. कर रहा है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू कुछ और ही कहानी कहता है। योजना आयोग द्वारा गठित सुरेश तेंदुलकर कमेटी ने देश में गरीबी का जो नया अनुमान पेश किया है उसके मुताबिक 37 फीसदी से ज्यादा भारतीय गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं। इससे पहले असंगठित क्षेत्र के उद्यमों से संबंधित राष्ट्रीय आयोग इस नतीजे पर पहुंचा था कि 78 फीसदी लोग 20 रुपए या उससे कम में रोजाना गुजारा करते हैं। यह सारी विषमता भोगवाद का ही परिणाम है।
दरअसल हमारे ऋषियों, संतों, भक्त कवियों, दार्शनिकों और यहां तक कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के गांधी जैसे नायकों ने भी अपनी ऐतिहासिक सीमाओं में कोशिशें कीं कि भारत के लोगों में विवेक और आत्म पहचान पैदा हो। लेकिन ये कोशिशें नहीं फलीं, क्योंकि लोगों की भावनाओं, निष्ठाओं और सामूहिकता का समाज के शासक वर्ग ने अंधविश्वास और भोगवाद के पक्ष में इस्तेमाल किया। उन्हें झुण्ड से ऊपर कभी उठने ही नहीं दिया। देश की जनता आज भी एक भावुक प्रजा है। उसे कोई भी स्वार्थी शासक या बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने चमत्कारी आकर्षण के तिलस्म से जकड़ सकती है। यह मानना उचित नहीं होगा कि देश का शासक वर्ग खासतौर से दुष्ट है। वह लगभग उतना ही अच्छा या बुरा है जितने देश के अन्य लोग। उसमें उससे ज्यादा भोग की इच्छा है जितना भोग लोकतांत्रिक रूप से उचित है। यह इच्छा भारत की नौकरशाही को भी भ्रष्ट बनाती है और चुनाव प्रणाली को भी। देश के आम उत्पादन स्तर और शासक वर्ग के भोग स्तर में कोई संतुलन नहीं है। इस असंतुलन के रहते न तो किसी प्रकार की राजनीति सफल हो सकती है और न कोई भी समाज पूर्ण रूप से सुखी हो सकता है।

1 comments:

Taarkeshwar Giri said...

Pandey ji Namhkar.

Badhiya likha hai apne. shayad apke blog par pahli bar aaya hun.