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Friday, December 17, 2010

हंगामा है क्यों बरपा



इस माह के शुरू में विकीलिक्स में अमरीकी विदेश विभाग के कुछ लाख प्रतिबंधित दस्तावेज प्रकाशित हो गये। अचानक दुनिया भर में हंगामा हो गया। यूरोप के कुछ देशों और दक्षिण एशिया तथा मध्य एशियाई देशों में तो मानों जाड़ा बुखार चढ़ गया। पाकिस्तान ने इस अवसर का लाभ उठाकर एक नयी अफवाह गढ़ डाली। शुक्रवार (सत्रह दिसंबर) को एक विख्यात टीवी चैनल ने उसी लीक के एक दस्तावेज के हवाले से कहा कि राहुल गांधी ने एक अमरीकी राजनयिक से बातचीत के दौरान..भगवा आतंकवाद को सबसे खतरनाक बताया है।.. इस तरह की अनेक लंतरानियां वहां पढऩे को मिल रही हैं। पर यह कैसा लीक है?
विख्यात इतालवी लेखक उंबर्तो इको का मानना है कि विकीलीक्स मामले की दोहरी अहमियत है। एक तरफ यह एक बोगस स्कैंडल है। ऐसा स्कैंडल, जिसे स्कैंडल तभी माना जा सकता है, जब इसे सरकार, जनता और प्रेस के रिश्तों में व्याप्त पाखंड की पृष्ठभूमि में देखा जाए। दूसरी तरफ इसमें अंतरराष्ट्रीय संचार व्यवस्था का पार्श्चगामी भविष्य नजर आ रहा है। ऐसा भविष्य जिसमें हर नयी टेक्नॉलजी केकड़ों की तरह संचार को पीछे ही पीछे घसीटती जाएगी। इनमें पहले बिंदु को लें तो विकीलीक्स ने इसकी पुष्टि कर दी है कि किसी भी देश की गुप्तचर सेवा, जो फाइलें जोड़ती रहती हैं, उनमें सिर्फ अखबारी कतरनें भरी होती हैं।
बर्लुस्कोनी की सेक्स आदतों के बारे में अमरीकी खुफिया एजेंसियों ने जो असाधारण खुलासे अपनी सरकार के पास भेजे हैं, वे महीनों से सबकी जानकारी में थे, और गद्दाफी का जो गंदा कैरिकेचर इन खुफिया फाइलों में नजर आता है, उससे ज्यादा ब्यौरे कैबरे डांसरों की परफॉरर्मेंस में मिल जाते हैं।
ठीक यही हालत खुफिया फाइलों की है। भेदिए बिल्कुल काहिल हैं और खुफिया सेवा का चीफ उनसे भी घामड़ है- जो चीज उसकी समझ में आती है, उसी को सच मानता है। तो भला इन लीक्स को लेकर इतना बवाल क्यों मचा हुआ है? इसकी वजह सिर्फ एक है, और यह वही है, जिसे कोई भी समझदार प्रेक्षक पहले से जानता है। वह यह कि द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद से सारे दूतावास अपनी राजनयिक भूमिका खो चुके हैं और जब-तब आयोजित होने वाले समारोहों को छोड़ दें तो वे महज जासूसी के अड्डे बनकर रह गए हैं। सत्ताओं के संदेशवाहकों का काम वे पहले किया करते थे। जब से राष्ट्राध्यक्षों को कभी भी फोन मिलाकर एक-दूसरे से बात कर लेने और रातोंरात उड़कर दूसरे देश चले जाने की सुविधा हासिल हो गयी है, तब से दूतावासों के लिए काम ही क्या बचा है?
जो लोग खोजी डॉक्युमेंट्रीज देखना पसंद करते हैं, वे इसे अच्छी तरह जानते हैं और यह हमारा पाखंड ही है, जो हम इसे जानकर भी अनजान बने रहते हैं। फिर भी, इस जानकारी को सार्वजनिक करना पाखंड के कर्तव्य का उल्लंघन करना है और अमरीकी डिप्लोमेसी को तो इसने अभी नंगा करके नहला दिया है। इस लीक का दूसरा पक्ष इससे बनने वाली यह समझ है कि कोई भी पुराना हैकर संसार के सबसे ताकतवर देश के सबसे गोपनीय रहस्यों तक अपनी पहुंच बना सकता है। इससे अमरीकी विदेश नीति की प्रतिष्ठा को भारी आघात लगा है।
दूसरे शब्दों में कहें तो इस स्कैंडल ने कुचक्रों का शिकार होने वालों से ज्यादा चोट कुचक्र रचने वालों को पहुंचायी है।
अब इस घटना के ज्यादा महत्वपूर्ण पक्ष पर आते हैं। जॉर्ज ऑरवेल के जमाने में हर सत्ता को अपने प्रजाजनों पर नजर रखने वाले..बिग ब्रदर.. की तरह लिया जाता था। ऑरवेल की भविष्यवाणी तब पूरी तरह सच हो गयी जब सरकारें किसी भी नागरिक की हर फोन कॉल पर, चाहे जिस भी होटल में वह ठहरे, उस पर और जिस भी टोल रोड से होकर वह गुजरे, उसके चप्पे - चप्पे पर नजर रखने की स्थिति में आ गयीं। लेकिन पहली बार जब यह सच्चाई सामने आती है कि ऐसी सरकारों के रहस्य भी हैकरों के दायरे में आ चुके हैं, तब नजर रखने की प्रक्रिया एकतरफा न होकर चक्रीय हो जाती है।
कोई भी सत्ता अगर अपने रहस्यों को ही सुरक्षित नहीं रख सकती तो वह भला टिकी कैसे रह सकती है? जॉर्ज सिमेल ने एक बार कहा था कि असली रहस्य एक छूंछा रहस्य होता है, यानी कोई ऐसी चीज, जिसे खोज लेने पर कुछ भी हाथ नहीं लगता। यह बिल्कुल सही है कि बर्लुस्कोनी या मर्केल के चरित्र के बारे में जो भी जानकारी बाहर आती है, वह एक छूंछा रहस्य ही है।

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