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Tuesday, January 4, 2011

बड़ा अजीब समय आ गया है


बड़ा अजीब समय आ गया है। हमारे पत्रकार सत्ता के साथ षड्यंत्र के दोषी दिख रहे हैं और नेता अपराधियों की श्रेणियों में खड़े मिलते हैं। मधु कोड़ा, सुरेश कलमाड़ी और शिबू सोरेन आजादी से लालबत्ती वाली गाडिय़ों पर घूमते देखे जा सकते हैं, फूलन देवी सांसद हो सकती हैं और डॉ विनायक सेन एम. डी. आजीवन कारावास पा सकते हैं।
प्रस्तुत यह ब्लाग इस कड़ी में दूसरा है, अक्सर ऐसा नहीं होता पर समस्या जब लोकतंत्र, मानवीय संवेदना और प्रतिबद्धताओं से ताल्लुक रखती हो तो लिखने के लिये बाध्य होना पड़ता है।
डॉ विनायक सेन, जो आदिवासियों का इलाज करते थे, ने जिंदगी में एक मच्छर भी नहीं मारा होगा। उन्हें यह भी नहीं आता कि बंदूक कैसे पकड़ी जाती है और उन्हें मिला आजीवन कारावास। अब दूसरा पहलू लीजिए। खूंखार उल्फा आतंकवादियों के नेता को अदालत जमानत दे देती है और असम की सरकार इस फैसले के खिलाफ अपील भी नहीं करती। लालू के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुकदमे में भी केंद्र सरकार अपील नहीं करती।
डॉ बिनायक सेन सलवा जुडूम के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। वह कह रहे थे कि माओवादियों के खिलाफ सरकार द्वारा चलाया जा रहा कार्यक्रम वहां के आदिवासियों के लिए एक नये आतंकवाद की तरह है। उनकी सजा ? आजीवन कारावास!
कौन हैं ये लोग जो सिस्टम पर कब्जा कर रहे हैं? कैसा है यह लोकतंत्र?
याद आता है सिविल डिसओबीडिएंस (सविनय अवज्ञा आंदोलन- गांधीजी ने इसी से लिया था) के जनक हेनरी डेविड थोरो का एक किस्सा। अमरीकी सरकार ने एक टैक्स लगाया। थोरो के अनुसार वह टैक्स अनुचित था। थोरो ने विरोध किया तो उन्हें जेल भेज दिया गया। एक दिन उनका पड़ोसी किसी और को देखने जेल में पहुंचा तो देखा कि एक सेल में थोरो बंद हैं। उसने चौंक कर पूछा-...थोरो
, आप यहां कैसे?... थोरो का संयत जवाब था-.. यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि आप बाहर कैसे?..आज जरूरत यह पूछने की है कि ...ये कौन लोग हैं जो परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से सत्ता को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं।... एक नेता अगर पांच साल बाद जाता है तो दूसरा आ जाता है। फिर वही सिलसिला। नेता बदलने से हालात नहीं सुधरते। संसद में पिछली बार 99 लोग करोड़पति थे। इस बार 306 हैं। करोड़पतियों का जमघट है।
प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री टाकविल ने अमरीका के प्रजातंत्र की धूम सुनी तो पेरिस से अमरीका पहुंचे, वहां के प्रजातंत्र की खूबियां जानने। लौटकर उन्होंने एक लेख लिखा- अमरीकी प्रजातंत्र का सबसे बड़ा खतरा है बहुसंख्यक का आतंक। भारत में यह खतरा तो नहीं है, पर वोट का बहुमत जिस तरह हासिल हो रहा है, जिस तरह जनता को गुमराह कर शोषण को संस्थागत किया जा रहा है, वह सबसे बड़ा खतरा है।
ऐसा नहीं है कि अच्छे लोग नहीं हैं। यह भी नहीं है कि ईमानदार तन कर खड़ा होने को तैयार नहीं हैं। समस्या यह है कि उनके तन कर खड़े होने से भी कुछ नहीं हो पा रहा है। मीडिया कॉरपोरेट घरानों की चेरी है तो न्याय-प्रक्रिया दोषपूर्ण। आज जरूरत है ओपिनियन बनाने की, ताकि नेता उससे डरें और अदालत को आलोचना से बचने की फिक्र हो। वरना कल हो सकता है आपको भी पुलिस खींचती हुई ले जाय और अदालत 10-20 वर्षों के लिये बंद कर दे। रवींद्र नाथ टैगोर ने कहा है कि..यदि कोई किसी के प्रति खराब व्यवहार करता है तो महसूस होता है कि वह मेरे ही खिलाफ दुराचरण करता है।..
हो सकता है कि यह अहसास आपके प्रति हो। इसलिये आवाज उठायें, गलत के खिलाफ।

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