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Wednesday, February 23, 2011

बिगड़ते हालात, मजबूर सरकार

आर्थिक उदारीकरण के 20 साल हो गये। सचमुच भारत में भारी बदलाव आया है। दिल्ली और मुम्बई को सरकार विश्वस्तरीय महानगर बता रही है। बेशक ऐसा ही है और उदारीकरण के कारण ही ऐसा ही हुआ है। लेकिन इस विकास का लाभ अधिकांश अमीरों को ही मिला है। देश में 52 खरबपति हैं और लाख से ऊपर करोड़पति। शहरों में बड़े बड़े मॉल्स खुल गये और उनमें विश्वस्तरीय सामान बिकते हैं और सड़कों पर आयातित कारों का काफिला तो आम बात है। कुल मिला कर बहुत बड़े और रसूख वाले लोगों को इस आर्थिक सुधार से भारी लाभ हुआ है। जहां तक आम आदमी का सवाल है वह तो बेचारा अभी कन्फ्यूज्ड है और इस चमक- दमक से चुंधियाया हुआ है। आज भी एक आदमी के लिये बढिय़ा टी वी सेट या मोबाइल फोन या गरीब रिहाइशी इलाके में एक कमरा पाना मुश्किल है। ये हालात नहीं बताते कि हमारी तरक्की हुई है। अभी भी दस करोड़ लोग झुग्गी- झोपडिय़ों में जीवन गुजार रहे हैं, लगभग 15 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं है। अच्छी नौकरियां उच्च शिक्षित लोगों के लिये हैं और बढिय़ा व्यवसाय के लिये पूंजी की बाध्यता है। दूसरी तरफ विशाल मध्य वर्ग का एक हिस्सा जिसकी आबादी लगभग 30 करोड़ है वह खुशहाल तो है पर धीरे- धीरे एक बड़े बाजार के रूप में बदलता जा रहा है। पिछले तीन वर्षों में खाद्य पदार्थों की महंगाई का इस समुदाय पर उतना असर नहीं पड़ा है पर गरीब तबके के लोगों के लिये तो एक कठिन स्थिति पैदा हो रही है। उन्हें जीने के लिये कई जरूरियातों की कटौती करनी पड़ रही है जिसमें बच्चों की शिक्षा भी शामिल है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक विगत तीन वर्षों में लगभग 80 लाख बच्चे स्कूलों से अलग हो गये। महंगाई के कारण ग्रामीण गरीबों और मजदूरों की हालत और खराब है। उनकी क्रयशक्ति तेजी से घटती जा रही है। यही नहीं एक बहुत बड़ा वर्ग है जो असंगठित क्षेत्र में काम करता है और उसकी आमदनी बढऩे के बजाय तेजी से घटती जा रही है और उसके बढऩे की कोई उम्मीद भी नहीं है। पिछले दो वर्षों से मानसून के अच्छा होने के बावजूद खाद्य पदार्थों के दाम बढ़ते जा रहे हैं, क्योंकि हमारे वितरण और आपूर्ति के नेटवर्क में भ्रष्टïाचार का कीड़ा लग चुका है। शासन में चुस्ती और सख्ती नहीं रहने के कारण भारी घोटाले और फिजूलखर्ची हो रही है। व्यापारिक क्षेत्र ज्यादा मुनाफे के लालच में जमाखोरी में लगा है और कीमतों को बढ़ाने की साजिश का पुर्जा बना हुआ है। इन सबके कारण आर्थिक सुधारों का लाभ सब तक नहीं पहुंच पाया। नेता, व्यवसायी और पत्रकारों की साठ गांठ की गाथा अब सबके लिये पुरानी हो गयी है। लाखों करोड़ों के घोटालों की खबरें अब चौंकाती नहीं हैं। हमारी नैतिकता दिनों दिन घटती जा रही है। यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी माना है कि हमारा 'नैतिक व्योमÓ सिकुड़ता जा रहा है। तिसपर औद्योगिक उत्पादन में गिरावट के कारण अद्र्ध कुशल और अकुशल मजदूरों में बेकारी बढ़ती जा रही है जो भविष्य में एक भारी समस्या बन जायेगी। जिसकी झलक माओवादी हिंसा में साफ दिखायी पड़ रही है। श्रम मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 9.4 प्रतिशत श्रमिक बेकार हैं इनमें सबसे ज्यादा बेकारी ग्रामीण मजदूरों की है। यह हालत तबतक नहीं सुधरेगी जबतक बेकार मजदूरों को प्रशिक्षित नहीं किया जाता और उन्हें सहानुभूति पूर्र्वक रोजगार नहीं मुहय्या कराये जाते। अगर ऐसा नहीं होता है तो देश को एक भारी विप्लव का सामना करना होगा।

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