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Wednesday, February 23, 2011

हंसी आती है उनकी अक्ल पर


हंसी आती है उनकी अक्ल पर
अभी हाल में मिस्र, ट्यूनिशिया, बहरीन यमन, लीबिया, चीन इत्यादि देशों में आंदोलन हुये तख्ता पलट हुआ। उस आंदोलन की आंच हमारे देश में भी लगने लगी। कुछ बड़े जानकार नेता कहने लगे कि यहां भी वैसी ही क्रांति सुलग रही है और कभी भी शोलों में भड़क सकती है। कई नेता यह भी सफाई देने में लग गये है कि उनकी सरकार और होस्नी मुबारक की सरकार में कोई समानता ही नहीं है। बातें बड़ी - बड़ी होने लगी हैं। सुनकर ऐसा लगता है कि कहीं सुबह- सुबह खबर ना मिले कि ब्रिगेड मैदान या रामलीला मैदान या कफ परेड या गांधी मैदान या देश का कोई और मैदान कहीं रात में तहरीर मैदान में बदल गया। लेकिन जिस तहरीर यानी आजादी को हासिल करने के लिए वे अपनी जान दे रहे हैं, वह 60 साल हो गए हमें हासिल हुए। यहां भी 60 साल पहले कुछ जुनूनी लोगों ने उनकी तरह जंग लड़कर हमें वोट देने का, अपनी सरकार बनाने का और मुल्क को जनता की सोच के हिसाब से चलाने का हक दिया था। लेकिन हम उसे इस्तेमाल करने में कोई नहीं रुचि रखते हैं। जिन नेताओं को वैसी ही क्रांति की उम्मीद नजर आ रही है और जो लोग इससे हमारे देश की स्थिति की तुलना कर रहे हैं उनकी अक्ल पर हंसी आती है। अगर इस आंदोलन को समाज वैज्ञानिक नजरिये से देखें तो लगेगा कि सारे आंदोलनों या क्रांतियों में एक खास ट्रेंड है वह है डेमोग्राफी यानी आबादी के अनुपात का ट्रेंड। मध्य पूर्व और अफ्रीकी देशों में जो इंकलाब हुये उनके पीछे के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों को असर दार बनाने में और उससे क्रांति का स्वरूप प्रदान करने में आबादी के अनुपात का बड़ा हाथ था। इन देशों की आबादी में युवाओं का हिस्सा बढ़ते-बढ़ते ऐसी हदों में पहुंच गया है, जहां मौका पाते ही सत्ता का हिसाब गड़बड़ा जाता है। ट्यूनीशिया (जहां से बगावत की लहर शुरू हुई) में 52 फीसदी आबादी 30 साल से कम उम्र की है। मिस्र की तो 61 प्रतिशत आबादी इस श्रेणी में आती है, इसीलिए वहां इंकलाब का ऐसा नाटकीय चेहरा दिखाई दिया। यमन में यह अनुपात एक-तिहाई का है, लेकिन वहां कुछ बरसों पहले तक यह ज्यादा ही था, जब जन्म दर काफी ऊंची थी। दरअसल अरब देश अपनी जवानी की इस बहार को बस पार ही करने वाले हैं। अगर वहां इस वक्त बगावत नहीं होती या नाकाम हो जाती, तो उसका मौका गुजर जाता। लेकिन डेमोग्रफी के इस मोड़ पर, जिसे अंग्रेजी में 'यूथ बल्जÓ और हिंदी में 'जवानी का दौरÓ कहा जा सकता है, इंकलाब का बहाना क्यों बन जाता है? इसका कारण हैं कि नौजवान, अगर वे दुनिया से वेल कनेक्टेड हैं, जोकि आज की इंटरनेट, मोबाइल फोन और टीवी की दुनिया में सरल है, तो वे तरक्की, सहूलियत, शौक, तालीम और रोजगार की मांग करेंगे और अगर उन्हें मनमाफिक विकास नहीं मिल रहा है, तो वे ऐसे शासक के खिलाफ बगावत किए बिना नहीं रहेंगे, जो उन्हें दुनिया से बराबरी का मौका नहीं देता हो। अब बात आती है भारत की। भारत का युवा क्या सोचता है, इस बारे में तस्वीर पूरी तरह साफ नहीं है। वह शिक्षा, तरक्की और तनख्वाह चाहता है, यह तो मानी हुई बात है, लेकिन दूसरी चीजों पर उसका नजरिया क्या है। अगर युवा अपनी बेहतरी को लेकर इतने कमिटेड हैं, तो उन्हें अमन-चैन, राजनीतिक स्थिरता की दरकार होगी, लिहाजा वे मंदिर-मस्जिद के झगड़े, भारत-पाक लफड़े और आइडियॉलजी की तकरारों में नहीं पड़तेे होंगे। उनके पास जाति और वे ऐसी पाटिर्यों और नेताओं का साथ देंगे, जो सिर्फ तरक्की की जबान बोलते हों। हाल के एक सर्वे में यह बात खुल कर सामने आयी है। दिक्कत यह है कि भारत के युवा सियासत को लेकर उदासीन हैं। राजनीति से उन्हें उकताहट होती है, वे नेताओं को गालियां देते हैं और वोट नहीं डालते। हमें वोट देकर सरकार बदलने, ईमानदार आदमी को सत्ता में लाने, भ्रष्टï नेता को धूल चटाने जैसी आसान ताकत मिली है, उसका तो हम इस्तेमाल नहीं करते, और वे हैं इंकलाब की बात करते हैं।

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