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Sunday, March 27, 2011

'अशिक्षित बनाये रखने की साजिश



हरिराम पाण्डेय
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ताजा आंकड़े बताते हैं कि देशभर में प्राइमरी स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की तादाद में खासी गिरावट आयी है। हमारी आबादी के परिप्रेक्ष्य में ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं। यह स्थिति तब है, जब शिक्षा के अधिकार के बारे में इतनी बातें की जा रही हैं। संभव है हम किसी सनसनीखेज खबर के बाद इस आंकड़े को भी भुला दें, लेकिन यह बहुत चिंताजनक स्थिति है। यदि हम ग्लोबल दुनिया के अनुसार प्रशिक्षित नहीं होंगे और प्राथमिक शिक्षा उस प्रशिक्षण के लिए पहला कदम है तो हम नौकरों और क्लर्कों का देश बनकर रह जाएंगे। इसके कई कारण हैं पर दो अत्यंत व्यावहारिक कारण हैं पहला है कमर तोड़ महंगाई और दूसरा हमारे नेताओं को खुद को हमारा खुदा समझते हैं उनकी सुविधा। अभी हाल में बजट आया। यही करीब महीना भर हुए होंगे। दुर्भाग्य से कहें यही शिक्षा के नये सत्र की शुरुआत का भी समय है। सरकार शिक्षा के बुनियादी अधिकार की बात करते नहीं अघा रही है पर किसी ने गौर किया है कि कागज, स्याही , छपाई , स्कूलों की बढ़ती फीस इत्यादि में कोई कटौती नहीं हुई। शिक्षित होने के ये जरूरी साधन सस्ते नहीं हुए। महंगाई ने निम्न आय वर्ग के लोगों का जीना मुहाल कर रखा है। ऐसे में वे अपने बच्चों को स्कूल में पढऩे क्यों भेजेंगे, खासतौर पर तब, जब उस शिक्षा के लाभ स्पष्ट नहीं हैं। वे अपने कामकाज में उनकी मदद क्यों नहीं लेना चाहेंगे।? रोटी, कपड़ा और मकान के बाद शिक्षा सबसे जरूरी वस्तु है। लेकिन आम आदमी को शिक्षित होने के सारे रास्ते धीरे - धीरे बंद किये जा रहे हैं और दूसरी तरफ रंगीन टेलीविजन और कम्प्यूटर जैसी चीजें लगातार सस्ती हो रहीं र्है। यह पूरे देश की भविष्यत पीढ़ी को अनपढ़ बनाये रखने की साजिश है। ये चमकदार दृश्य माध्यम हैं। इसमें मंत्रियों- नेताओं के जिंदा तिलस्माती भाषण सुनिये- देखिये या कूल्हे-कमर मटकाती 'मुन्नी बदनाम हुई...Ó सुनिये या देखिये। इससे भी समय ना कटे तो क्रिकेट देखिये और सुनिये कि किस उद्योगपति ने कितने करोड़ रुपये में किस मैच का टिकट बुक कराया है या किस खिलाड़ी को किस छक्के पर कितने रुपये मिले। यह सब आम आदमी के सोचने समझने की ताकत को कुंद कर देने की सोची- समझी गयी स्कीम है। जिस देश में बच्चे पैसे के अभाव में पढ़ नहीं पाते उस देश में ये सब बातें ऐसे तिलिस्म का सृजन करती हैं जिनकी गलियां गंभीर कुंठा या आत्महत्या के घिनौने अंधेरे में जाकर गुम हो जाती हैं।
सारी दुनिया और सभ्यताओं को जिन दो आविष्कारों ने आमूल चूल बदल डाला वे थीं बारूद और कागज। कागज यानी ज्ञान विज्ञान का लिखित दस्तावेज और साथ ही शिक्षा की इजारेदारी घटाकर उसे आम आदमी के लिये मुहय्या कराने का साधन। निरक्षरता या अद्र्धशिक्षित स्थिति से राजनेताओं को परोक्ष रूप से होने वाला फायदा। वोट बैंक की राजनीति करने और आराम से घपले करने के लिए निरक्षर या अद्र्धशिक्षित लोग बहुत उपयोगी साबित होते हैं। यदि भारत के लोग सुशिक्षित होते तो क्या इतने सारे घोटालों के बावजूद सरकार बनी रह सकती थी? आज भी हमारे प्रधानमंत्री अपने बचाव में सबसे बड़ा तर्क यही देते हैं कि लोगों ने हमें वोट दिया है, इसलिए हमारी गतिविधियां न्यायोचित हैं। डीएमके का आज भी तमिलनाडु में ठोस जनाधार है। यदि हम विवेकसंगत होते तो क्या यह लूट-खसोट जारी रह सकती थी?
अगर शासन की यह मंशा नहीं होती तो कम से कम किताबों और कापियों पर सब्सिडी मिलती, स्कूलों की दशा में सुधार किया जाता। आज हमारे स्कूलों की स्थिति दयनीय है। यदि किसी ग्रामीण स्कूल को देखें तो इस बात का अंदाजा हो जाएगा। क्लासरूम व फर्नीचर से लेकर शिक्षकों तक सभी की गुणवत्ता निम्नस्तरीय है। क्यों? क्या ग्रामीणों को यह अधिकार नहीं कि वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा मुहैया कराएं? यह कहा जा सकता है कि चूंकि ग्रामीण स्कूल शासकीय अनुदान पर संचालित होते हैं, लिहाजा गुणवत्ता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। लेकिन क्या हमें स्कूलों के बुनियादी ढांचे में अधिक निवेश नहीं करना चाहिए? क्या हमें स्कूलों की परंपरागत प्रणाली में नए सिरे से सुधार नहीं करने चाहिए? शिक्षा भले ही प्राथमिक स्तर की हो, लेकिन गुणवत्ता उच्च होनी चाहिए। खराब गुणवत्ता वाली शिक्षा वास्तव में शिक्षा ही नहीं है।
दूसरी बात यह कि हमारे स्कूलों का पाठ्यक्रम आज भी घिसा-पिटा है। पिछले तीन सालों में पेशेवर दुनिया कितनी बदल गयी है और उसकी तुलना में हमारे पाठ्यक्रमों में कितना बदलाव आया है? हमारे पाठ्यक्रमों का निर्धारण करने वाले लोग कौन हैं? क्या वे उद्योग और सेवा क्षेत्र की जरूरतों के मद्देनजर पाठ्यक्रम में समय-समय पर बदलाव करते हैं? गरीब लोग अपने बच्चों को स्कूल में इसलिए भी पढ़ाने भेजते हैं कि वे वहां धन कमाने के हुनर सीखेंगे। यदि स्कूल उन्हें यह हुनर नहीं सिखाएंगे तो वे क्यों पढऩा चाहेंगे? गरीबों को वह शिक्षा आकर्षित नहीं करती, जो महज बच्चों की जिज्ञासा शांत करती है या उन्हें खानापूर्ति के लिए कुछ सिखा देती है। ऐसा तो नहीं है कि लोगों को अनपढ़ बनाये रखने के लिए जानबूझकर कोई रणनीति बनायी गयी हो ताकि सत्ता के सीता हरण में जनता जटायु बनकर व्यवधान न डाले।

1 comments:

Anonymous said...

सर, कृप्या आंकड़े भी लिख दें कि देशभर में स्कूली बच्चों की तादाद कितनी है... इसकी कमी महसूस हो रही है