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Tuesday, March 22, 2011

लीबिया होगा अमरीका के लिये सिरदर्द



हरिराम पाण्डेय
यह सच है कि लीबिया पर आरंभिक हमले फ्रांस ने किये पर यह पूरी तरह अमरीकी देखरेख में हुआ और बाद में अमरीका भी मिसाइलें दागने लगा तथा ब्रिटेन भी इसमें शामिल हो गया। अगर इन हमलों को किसी ने टीवी पर देखा होगा और इराक पर हमलों की याद उसे होगी तो दोनों में काफी समानता , खास कर हमले के बहानों में, काफी समानता दिखायी पड़ रही होगी। इराक पर 2003 में जब हमले शुरू हुए थे तो तत्कालीन राष्टï्रपति जार्ज बुश ने इसे सद्दाम हुसैन का सिर कुचलने की क्रिया बतायी थी। शनिवार को जब लीबिया पर आक्रमण हुए तो कहा गया कि इसका उद्देश्य मानवीय है और दरअसल यह हमला नहीं केवल विद्रोहियों के कब्जे वाले इलाकों में लोगों को मदद पहुंचाने के लिये एक तरह से हस्तक्षेप है। पर असली इरादा तो निरंकुश शासक कर्नल मुअम्मर गद्दाफी को हटा कर उसकी जगह पश्चिमी देशों की दुम हिलाऊ सरकार को गद्दी पर बैठाना है ताकि अमरीकी तेल और गैस कम्पनियां वहां लौट सकें और अपना कारोबार शुरू कर सकें। लीबिया में हमले के पीछे तेल का लोभ है ना कि मानवाधिकार की चिंता है या लोकतंत्र के प्रति मोह है।
ईश जाने देश का लज्ज विषय
तत्व है कि कोई आवरण
उस हलाहल सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि सी
जिस तरह इराक में सद्दाम हुसैन के अत्याचार के कारण उसके ही मुल्क के लोग उसके दुश्मन हो गये और अपनी अकड़ के कारण वह पड़ोसी देशों की आंख का कांटा बन गया था ठीक उसी तरह गद्दाफी ने भी अपने अत्याचार भरे रवैये और अकड़ के कारण अपने विनाश का पथ प्रशस्त किया। दुनिया की कोई ताकत सद्दाम हुसैन को 2003 में नहीं बचा सकी और दुनिया की ताकत 2011 में गद्दाफी को भी नहीं बचा सकेगी। सियासी तौर पर गद्दाफी का विनाश तो हो चुका है। जब भी कोई राजनेता - चाहे वह लोकतांत्रिक हो या निरंकुश- अपनी जनता का समर्थन खो देता है तो उसका अंत अवश्यम्भावी हो जाता है। अब यहां सवाल यह नहीं है कि कितने दिनों में गद्दाफी का पतन होगा बल्कि सवाल यह है कि कब होगा और किन हालातों में होगा? यही नहीं, उसका पतन वहां के लोगों पर क्या कहर ढायेगा? यही नहीं , पश्चिमी देशों के इस हस्तक्षेप से क्या सचमुच लीबिया की जनता को लाभ होगा या वे इटली तथा अन्य पश्चिमी देशों के तेल और गैस के प्रवाह से मिलने वाले मामूली धन पर जीने वाली अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन जायेंगे।
यह जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पायी
इराक पर हमले ने वैश्विक स्तर पर कई घटनाओं को उत्प्रेरित किया और अंतत: जार्ज बुश तथ टोनी ब्लेयर की नीतियों की धज्जियां उड़ गयीं। उन्हें पूरी तरह गलत साबित कर दिया। यहां तक कि ओबामा ने खुद स्वीकार किया कि इराक पर हमले के कारण अफगानिस्तान- पाकिस्तान क्षेत्र में अमरीका के लिये कई मुश्किलें पैदा हो गयीं हैं। इससे लगा कि ओबामा ने इराक तथा अफगानिस्तान से सबक लिया है पर लीबिया पर हमले से लगता है कि उन्होंने कुछ भी नहीं सीखा। इतिहास गवाह है कि अमरीका ने जब भी अपने मुल्क से बाहर कोई कार्रवाई की है तो उसे गौरव हासिल नहीं हुआ, चाहे वह कोरा हो या वियतनाम या सोमालिया या अफगानिस्तान या इराक। अब अगर ओबामा सोचते हैं कि लीबिया अपवाद होगा तो वे गलती कर रहे हैं। इस हमले का पहला असर होगा कि लोकतंत्र का जो बवंडर ट्यनिशिया से उठा था और मिस्र में पहुंच गया और अरब मुल्कों को भी प्रभावित करने लगा वह बवंडर थम जायेगा। अरब के स्वेच्छाचारी शासक जो अभी अमरीका या पश्चिमी देशों के साथ हैं उन्होंने यह इसलिये नहीं किया है कि लीबिया की जनता के लिये उनमें बहुत मोह है बल्कि उन्होंने यह कदम इसलिये उठाया है कि अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों का ध्यान लीबिया पर रहेगा और इस अवसर का लाभ उठा कर वे अपने- अपने देशों में लोकतंत्र की आवाज को दबा देंगे और आंदोलनकारियों को कुचल डालेंगे। उधर पश्चिमी देशों को भी लीबिया में अरब का समर्थन चाहिये ताकि वे सबको यह बता सकें कि यह सही अर्थों में निरंकुश गद्दाफी के खिलाफ अंतरराष्टï्रीय गठबंधन है जिसमें इस्लामी ताकतें भी शामिल हैं। बहरीन में ऐसा ही हुआ था। जहां लोकतंत्र समर्थक आंदोलन को कुचलने में अमरीका ने चुप्पी साध कर मदद की थी। उसी की शह पर वहां के सुन्नी नेता ने शिया आंदोलनकारियों को कुचल डाला था। आज जो बहरीन में हुआ कल हो सकता है वह सऊदी अरब में भी हो। लीबिया में अरब के समर्थन का सच यही है। लीबिया में जो भी हो पर उसकी गूंज हर जगह सुनायी पड़ेगी जहां अमरीकी जीवन और खतरे में पड़ेगा। चाहे वह अफगानिस्तान - पाकिस्तान हो या यमन हो या मिस्र। हमने अफगानिस्तान में नव तालिबान को पनपते देखा है और आज यह अमरीका के लिये सिरदर्द है। हो सकता है कल हमें नव अलकायदा देखने को मिले। गुस्से से आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है। जितना ज्यादा गुस्सा होगा उतना ही आतंकवाद को भी बढ़ावा मिलेगा।

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