CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Saturday, April 2, 2011

विश्व कप जीतना भारत के लिये जरूरी



हरिराम पाण्डेय
खेल में कूटनीति को मिलाने का सबसे ताजा उदाहरण बुधवार को मोहाली में क्रिकेट वल्र्ड कप का सेमीफाइनल था। इस मैच में भारत और पाकिस्तान का मुकाबला था और पूरा मुकाबला दोनों प्रतिद्वंद्वी देशों में छाया युद्ध की तरह था। भारत सरकार के न्योते पर इस मैच को देखने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी भी मौजूद थे। वहीं भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के अलावा कई वी आई पी मौजूद थे। भारत जीता और पूरा देश जश्न मनाने लगा, उधर पाकिस्तान में मातम और शर्मिंदगी। देश की आम जनता ने चाहे जैसा किया लेकिन पाकिस्तान के आमंत्रित मंत्री के साथ बैठ कर भारतीय नेताओं को वह खुशी का इजहार किया जाना कूटनीतिक दृष्टिï से बहुत सही नहीं कहा जा सकता है। खास कर ऐसे मौके पर जब वातावरण काफी आवेशित हो। बुधवार की रात कुछ टेलीफोन सन्मार्ग के कार्यालय में आये उसमें कई जहीन लोगों ने कहा कि यह जंग में विजय से ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठïामूलक है। यह स्थिति कूटनीतिक रूप से बहुत आदर्श नहीं कही जा सकती है।
इन सबके बावजूद भारत को अपनी अस्मिता के लिये यह मैच जीतना जरूरी था और विश्व कप जीतना भी निहायत जरूरी है। यह एक तरह से भारतीय जीवन की सामूहिक मनोवैज्ञानिक काउंसिलिंग है। आज जो स्थिति है उसमें हर भारतीय अंतरराष्टï्रीय स्तर पर खुद को पराजित और अपमानित महसूस कर रहा है। एक से बढ़ कर एक घोटालों और बेईमानियों के चर्चों ने आम भारतीय का सिर शर्म से झुका दिया है। 8.9 प्रतिशत की ग्रोथ रेट की बात घिसपिट गयी। ऐसी स्थिति में हमारी हारती हिम्मत के अंधियारे में रोशनी का एक टुकड़ा जरूरी है। रोशनी के उस टुकड़े का काम करेगा यह चमचमाता हुआ कप। देश में महंगायी अकेला मसला बचा है या फिर घोटाला, करप्शन। जिस कालीन को उठायें उसके तले करोड़ों रुपयों के घोटालों की फाइल दबी मिलती है। जिस विदेशी सर्वे को देखें वहीं भारत को बेईमानों का मुल्क लिखा है। बुधवार के जश्न को देख कर लगा कि महज एक कप हमें खुश होने का बहाना दे देगा। अपने पर गर्व करने या नाज करने का मौका दे देगा। इससे कुछ होगा अथवा नहीं लेकिन माहौल में पॉजिटिव इनर्जी का संचार होगा। इससे बेशक हमारी सामाजिक सेहत सुधरेगी। आजादी के बाद भारत ने 1983 में वल्र्ड कप जीता था। उस समय की सामाजिक स्थिति की जानकारी जिन्हें होगी उन्हें मालूम होगा कि वह भारत की अपनी रोजमर्रा की उलझनों का बरस था। ग्लोबलाइजेशन और उदारीकरण की तब सोची भी नहीं जा रही थी। देश अपनी धीमी रफ्तार में रेंग रहा था। पैसा बड़ी खबर नहीं होती थी, न तरक्की। बड़ी खबर सियासत से आती थी, जैसे उस साल का असम इलेक्शन, जिसमें दिल्ली की जिद ने सैकड़ों लोगों को बलि का बकरा बना दिया था। या फिर फूलन देवी का सरेंडर। 1982 तो उससे भी निस्तेज था, जब देश में कोई बड़ी हलचल नहीं हुई। भारत की जिंदगी में तब 1983 का वल्र्ड कप ही संजीवनी बना था। यहां यह दावा तो नहीं है कि उसी की वजह से सब कुछ बदल गया, लेकिन ठीक अगले बरस बड़ी तारीखों का सिलसिला बनने लगा। 1984 ऑपरेशन ब्लूस्टार, इंदिरा गांधी की हत्या और सिख दंगों का काला बरस भी था, लेकिन उस साल भारत का मिजाज भी कई बातों से हमेशा के लिए बदलने लगा। मारुति 800 कार बाजार में आयी, जिससे मध्य वर्ग की हसरतों को पर लग गए। राकेश शर्मा नाम के पहले भारतीय ने अंतरिक्ष से धरती को देखा और कहा, धरती बेहद सुंदर लगती है, लेकिन सबसे खूबसूरत है अपना देश। उसी बरस भारतीय सेना ने सियाचिन पर कब्जा कर लिया। उसके बाद आया 100 सी सी मोटर सायकिलों का रेला जिसने भारतीयों की जिंदगी में रफ्तार पैदा कर दी। आज भी जो दो चीजें भारत की युवा पीढ़ी को गतिमान बना रही हैं, उनमें एक बाइक ही है दूसरी है मोबाइल फोन। 1985 के बाद के बरसों में देश को बड़े घाव नहीं लगे, सिवाय कश्मीर में आतंकवाद के , जिसकी जड़ें वैसे भी 1947 तक जाती हैं। इस दौरान अयोध्या और मंडल दो ऐसी बातें हुईं, जिनके हमारी जिंदगी पर गहरे असर हैं, लेकिन हर समाज को अपने अतीत के नासूर कभी-न-कभी तो झेलने होते ही हैं। यह मामूली बात नहीं है कि भारत के पास इसे सहने और इससे उबरने की ताकत थी। 1991 के बाद वैसे भी पैसा और तरक्की ने बड़ा मुद्दा बनना शुरू कर दिया था। जाति, धर्म और आतंक की तमाम आती-जाती लहरों के बाद आखिरकार इसी का राज कायम हुआ। भारत ने अपना बैलेंस खोज लिया। आज वह बैलेंस बिगडऩे लगा है। बिना उत्साह के भारत कैसे चलेगा। उसे अपने नायकों में आस्था वापस चाहिए। हमें अपना खोया हुआ जोश वापस चाहिए। बुधवार के मैच का जश्न और उत्साह देख कर तो ऐसा ही लगा। इसलिये हमें यह कप जीतना जरूरी है।

0 comments: