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Thursday, April 14, 2011

अन्ना का आंदोलन और सरकार की समरनीति


हरिराम पाण्डेय
दिल्ली में अन्ना हजारे के अनशन का उद्देश्य सरकार को झुकाना नहीं था, इसका एकमेव उद्देश्य था , उस भारतीय को जगाना, जो मु_ीभर नेताओं और उनके अनुचरों द्वारा इस देश की दौलत को लूटे जाने के दौरान उनींदा और अकर्मण्य हो चुका था। हजारे यह देखने के लिए प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे कि कितने भ्रष्ट, पाखंडी मंत्री उनकी तरफ आते हैं। वे जानना चाहते थे कि कितने सारे अन्ना हजारे अपने घरों के सामने गली के नुक्कड़ पर उनकी तरह काम करना शुरू कर चुके हैं। उन्होंने एक ही सवाल पूछा था: हिंदुस्तानियो, क्या तुम्हारे पास विवेक है? लेकिन अब सवाल उठता है कि क्या भारतीयों के भीतर का विवेक जाग चुका है? गत नौ अप्रैल को सभी ने सुना और जाना कि भ्रष्टïाचार विरोधी कमेटी बनाने के लिये अन्ना की मांग को सरकार ने मान लिया और इसके फलस्वरूप अन्ना ने अपना आमरण अनशन तोड़ दिया। यह दरअसल सरकार और सामाजिक संगठनों में जोर आजमाइश के व्यवहार्य पक्ष की समाप्ति और समरनीतिक चरण की शुरुआत थी। पहले चरण में समाज जीता और सरकार पराजित हुई। मनमोहन सिंह की सरकार ने उन मांगों को इस लिये मान लिया कि चार दिनों में चक्रवात की शक्ल में बदल गये उस आंदोलन के अचानक आघात से उबर सके। इस आंदोलन में सामाजिक संगठनों और छात्र संगठनों के ऐसे गठबंधन की सरकार को उम्मीद नहीं थी। सरकार ने उन मांगों को इस लिये नहीं मान लिया कि वह उन्हें उचित मानती थी, बल्कि इसलिये मान लिया कि वह इस आंदोलन में निहित आश्चर्य के तत्व से निपट नहीं पा रही थी। सरकार के इस कदम के संभवत: दो कारण हो सकते हैं। पहला कि समाज और छात्रों के संगठनों का यह गठबंधन बहुत टिकाऊ नहीं होगा। दूसरा कि एक बार उसकी ऊर्जा बिखर गयी तो फिर से समेटना संभव नहीं हो सकेगा। मिस्र में इसका उदाहरण साफ दिख रहा है। अब यह सरकार के लिये बुद्धिमानी नहीं होगी कि वह इस आंदोलन के प्रभाव को खत्म होने का इंतजार करे अथवा गठबंधन को तोडऩे की साजिश में जुट जाए। अगर सरकार ऐसा करती है तो यह लाभदायक नहीं होगा। ऐसा होने के कई कारण हैं जैसे देश का शहरी वर्ग भ्रष्टïाचार और उससे निपटने में सरकार की नाकामयाबी से ऊब चुका था और बेहद गुस्से में था। अब यहां यह देखना है कि यह गुस्सा गांवों तक छितराया है अथवा नहीं। इसकी पड़ताल तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के नतीजों से हो सकती है। यहां सवाल उठता है कि क्या भ्रष्टïाचार के खिलाफ जंग में केवल शहरी समुदाय की भागीदारी मिल सकती है? क्या इसमें गांवों की आबादी को शामिल होना जरूरी नहीं है? यह भविष्य में आंदोलन की दशा और दिशा पर निर्भर करता है। दूसरे कि आंदोलनकारी समूह का एक हिस्सा यह भी चाहता है कि केवल व्यक्तिगत भ्रष्टïाचार के मामलात में ही सजा नहीं हो बल्कि भ्रष्टïाचार निरोधी संस्थाओं को भी ज्यादा अधिकार मिले ताकि उनकी साख बढ़ सके। उधर हजारे का आंदोलन संस्थागत आधार तैयार करने के लिये था। अब यदि इसमें व्यक्तिगत भ्रष्टïाचार से उपजे गुस्से को मौका ना मिले तो बहुत जरूरी है कि एक वर्ग का इससे तालमेल खत्म हो जाय। अब सरकार के लिये यह जरूरी है कि वह भ्रष्टïाचार को समाप्त करने में अपनी तरफ से पहल शुरू कर दे और कमेटी के गठन की प्रतीक्षा ना करे। इस पहल में समाज के विभिन्न वर्गों और छात्रों के संगठनों को भी शामिल किया जाय। यहां यह ध्यान देने की बात है कि हजारे के नेतृत्व वाला मोर्चा तभी तक प्रभावकारी दिखायी देगा जब तक कानून नहीं बन जाता लेकिन सरकार की पहल स्थायी होगी और यही उसकी अंतिम रणनीति होनी चाहिये।

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