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Friday, April 22, 2011

संसद को सर्वोच्च मानना जरूरी


हरिराम पाण्डेय
सोमवार को खबर थी कि अण्णा हजारे ने कहा है कि यदि संसद ने प्रस्तावित लोकपाल विधेयक को नहीं माना तो वे उसे स्वीकार कर लेंगे। यह बात अण्णा ने एक सवाल के जवाब में कहा था। सवाल था कि उन्होंने इतना बड़ा आंदोलन किया और सरकार ने भी उनकी मांगों को मान लिया, लेकिन यदि उनकी कमिटी द्वारा बनाया गया विधेयक संसद में नहीं स्वीकृत हुआ वैसी सूरत में वे क्या करेंगे? अण्णा का उत्तर सुनकर बहुतों की थमी हुई सांस ने उसांस भर ली। क्योंकि अण्णा ने जितने प्रभावशाली रूप में आंदोलन को चलाया था उससे बहुत लोगों को भय था कि जन लोकपाल विधेयक का अण्णा की कमिटी द्वारा तैयार मसौदे को यदि संसद ने नहीं माना तो कहीं आंदोलन अलोकतांत्रिक स्वरूप न ग्रहण कर ले। लेकिन अण्णा और उनके साथियों ने साफ कहा कि हमें संसद का निर्णय मंजूर है, हम लोकतंत्र में रहते हैं और लोकतंत्र पर भरोसा करते हैं। हालांकि अब अण्णा के समर्थक और साथी यह कहते फिर रहे हैं हैं कि अण्णा ने ऐसा कुछ कहा ही नहीं है। वे विधेयक को पास कराने की 15 अगस्त की समय सीमा से आबद्ध हैं। उल्लेखनीय है कि अपना सत्याग्रह भंग करते समय अण्णा ने कहा था कि अगर 15 अगस्त तक यह विधेयक पारित नहीं हुआ तो हम लोग संसद के लिये प्रयाण करेंगे। अण्णा इसके पारित होने की राह में किसी प्रकार का अवरोध बर्दाश्त नहीं करेंगे। यह सचमुच बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है। हजारे सत्याग्रह के दौरान बहुत लोग इसी बात से परेशान थे कि संसद में बेवजह बहस होती है। उनकी परेशानी सही है। इसलिये हमारे राजनीतिक वर्ग को इसे दूर करने के बारे में सोचना चाहिये और नागरिक होने की हैसियत से हमें भी इसे याद रखना चाहिये और जन मंचों पर हमेशा उठाते रहना चाहिये। लेकिन साथ ही हमें कानून बनाने की प्रक्रिया और अपनी संसद के लोकतांत्रिक प्रकृति को भी याद रखना चाहिये। हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि कानून बनाने की प्रक्रिया बेहद लम्बी और जटिल है। संसद में मतदान से पहले इस पर कई स्तरों पर बहस होती है और प्रस्ताव का बारीकी से विश्लेषण होता है। इस दौरान सामाजिक स्थितियों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। यहां कई सैद्धांतिक प्रक्षेत्र हैं जहां बहुत से लोग हजारे के तौर- तरीकों से इत्तफाक नहीं करते। हजारे ने खुद इसे 'सिद्धांतों का आतंकवादÓ कहा था। चाहे जो हो या जैसा भी हो लेकिन कानून बनाने के मामले में संसद की सर्वोच्चता को स्वीकार करना जरूरी होता है क्योंकि एक सक्रिय सियासत की यह पहली शर्त है। ... और अण्णा के समर्थक या साथी इस प्रतिबद्धता से आबद्ध नहीं हैं। यहीं आकर लगता है कि संसदीय लोकतंत्र के संदर्भ में यह आंदोलन कहीं छलावा तो नहीं है। जरा गौर करें, सिर्फ दो दिनों के भीतर, अण्णा हजारे, स्वामी अग्निवेश, किरण बेदी, प्रशांत भूषण, शांति भूषण और अरविंद केजरीवाल के बीच दूरियां दिखनी शुरू हो गयी हैं। और आने वाले दिनों में ये दूरी किस कदर, किस पक्ष पर हावी होगी या किस धड़े को कमजोर करेगी, यह फिलहाल कह पाना संभव नहीं। लेकिन हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल के मुद्दे पर इक_ा हुए तमाम लोगों के लिए परीक्षा की घड़ी अब शुरू हुई है।
इन सभी लोगों को अब ये साबित करना होगा कि जिस बड़े लक्ष्य की ओर इन्होंने कदम बढ़ाया है, उस दिशा में ये सभी एकजुट होकर लगातार आगे बढ़ते रहेंगे। इतना ही नहीं, इन्हें ये भी साबित करना होगा कि आगे बढऩे का रास्ता इनके पास है और उस रास्ते में किसी का भी अहम अड़चन बन कर सामने नहीं आयेगा। ना ही किसी प्रलोभन या व्यक्तिगत लाभ की वजह से उस बड़े मकसद के साथ बेईमानी की जायेगी। अगर इसमें से किसी भी मुद्दे पर, इस गुट में से किसी ने भी चूक की, तो इस पूरे अभियान को एक बहुत बड़ी और करारी चोट पहुंचेगी और उन पर लोकतंत्र को अमान्य करने का आरोप भी लग सकता है।

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