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Wednesday, April 6, 2011

महंगाई और वेतन वृद्धि का दुष्चक्र


हरिराम पाण्डेय
महंगायी और वेतनभोगियों की आय के बीच की दूरी लगातार घटती जा रही है और इससे आने वाले समय में देश की आर्थिक व्यवस्था के साथ - साथ सामाजिक मनोविज्ञान में नकारात्मक बदलाव की प्रबल आशंका है। पिछले वर्ष खत्म हुए वित्त वर्ष में उपभोक्ता मुद्रास्फीति वेतनभोगियों की आय में हुई वृद्धि से ज्यादा थी। इससे मध्यवर्ग के सोच और उनके खर्च करने की आदत में भारी बदलाव आने की आशंका है। इस बदलाव से जहां एक तरफ आर्थिक विकास प्रभावित होगा वहीं सामाजिक तनाव और कुंठा को भी बढ़ावा मिल सकता है। आर्थिक विकास के लिए जरूरी कई बातों में यह भी एक महत्वपूर्ण पहलू है कि अगर महंगाई बढ़ती है और उसी अनुपात में उपभोक्ता की आय नहीं बढ़ती है, तो उसकी खरीदने की क्षमता कम होगी। इससे देश की समूची खपत में कमी आएगी और विकास की गति धीमी होगी। आर्थिक सिद्धांतों के मुताबिक जब भी मुद्रास्फीति एक सीमा से ज्यादा बढ़ जाती है और कुछ समय तक उसी ऊंचाई पर बनी रहती है, तो खपत में और नये निवेश में कमी आने लगती है और इससे विकास दर में कमी की आशंका बढ़ जाती है। छठे वेतन आयोग के अनुसार सरकारी कर्मचारियों की आय में 16.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। उस दौरान प्राइवेट कंपनियों द्वारा भी वेतन में अच्छी वृद्धि की गयी थी। इससे वर्ष 2008-09 में वेतन में वृद्धि की दर अपने चरम उत्कर्ष पर थी और इस साल उपभोक्ता मुद्रास्फीति के औसतन 9.1 प्रतिशत पर रहने के बावजूद एक औसत वेतनभोगी की आय में 7.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। लेकिन वर्ष 2009-10 में औसत आय में वृद्धि गिरकर 8.4 प्रतिशत हो गयी थी जो पिछले पांच सालों में सबसे कम थी। उसके बाद वेतनभोगी को एक और झटका लगा , क्योंकि इस वर्ष उपभोक्ता मुद्रास्फीति औसतन 12.3 प्रतिशत पर रही। वर्ष 2010-11 के पहले 9 महीने में अर्थात अप्रैल से दिसंबर 2010 तक एक वेतनभोगी की औसत आय में वृद्धि तकरीबन 11 प्रतिशत रही है। अगर यही प्रतिशत हम पूरे साल 2010-11 के लिए मान लें , तो भी मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए उस वेतनभोगी की वास्तविक आय या तो बिल्कुल नहीं बढ़ी होगी या पहले से भी कम हो गयी होगी। पिछले दो दशकों में उपभोक्तावाद में वृद्धि के कारण सामाजिक सोच में हुए परिवर्तनों के कारण आम भारतीय 'ऋणम् कृत्वा घृतम् पीवेतÓ की मानसिकता का हो गया और इस कारण कम्पनियों ने उधार पर उपभोक्ता वस्तुएं देनी शुरू कर दीं। लेकिन अभी ताजा स्थिति को देखते हुए सवाल उठता है कि क्या अब भी वही मनोवृत्ति बनी रहेगी? मध्य- पूर्व की राजनीतिक अस्थिरता अगर लंबे समय तक चली तो यह निश्चित है कि इसका प्रभाव कच्चे तेल की कीमत पर पड़ेगा। जापान के न्यूक्लियर रिएक्टर में रेडिएशन से इसमें और वृद्धि के आसार हैं। यानी विश्व बाजार में तेल की कीमतों में उफान और मुद्रास्फीति में इसका प्रभाव आना लगभग तय है। अभी हाल में रिलीज हुए सीआईआई के बिजनेस आउटलुक सर्वे के अनुसार भारत का बजट घाटा बढऩा और उपभोक्ता मांगों में आ रही कमी आने वाले समय में विकास के लिए चिंता का विषय बनेगा। फिक्की की एक रपट में कहा गया है कि 70 प्रतिशत उद्योग अपने बढ़ते वेतन खर्च से परेशान हैं। कच्चे माल की कीमतों के बाद दूसरी सबसे ज्यादा परेशानी का कारण आर्थिक जगत के लिए वेतन वृद्धि ही है। रपट के मुताबिक गत वर्ष वेतन में 8.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई लेकिन मुद्रास्फीति के कारण वास्तविक वृद्धि हुई ही नही उल्टे आय में 3.4 प्रतिशत की कमी हो गयी। यानी वेतन वृद्धि के बावजूद कोई लाभ नहीं हुआ। बढ़ते बाजार के इस देश में वेतन वृद्धि और मुद्रास्फीति का दुष्चक्र कोई बहुत व्यापक सामाजिक परिवर्तन का संकेत है।

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