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Sunday, May 15, 2011

दादा गये, दीदी आईं


हरिराम पाण्डेय
13 अप्रैल 2011
पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम इससे चामत्कारिक हो ही नहीं सकते थे। अगर इससे ज्यादा होते तो अविश्वसनीय होते। जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस गठबंधन को बहुमत मिला, उससे साफ जाहिर होता है कि चुनावों के फैसले अब जनता के बीच होंगे। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक आचरण का नया इतिहास लिखा गया। जनता ने धमकियों और घुड़कियों को अनदेखा करके, वायदों को नजरंदाज कर, उम्मीदों को वोट दिया है। ममता की लहर और वामपंथ से नाराजगी तथा उम्मीदों के पक्ष में जनादेश, अगर इन सबके परिप्रेक्ष्य में बंगाल के चुनाव को देखें तो महसूस होगा कि राज्य एक राजनीतिक क्रांति से गुजर रहा है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बंगाल का जनमत ममता जी के पक्ष में है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि विजेता आराम से बैठ जाये या आत्मसंतुष्ट हो जाये अथवा जो पराजित हो गये हैं उनका सफाया हो गया। पहले ही कहा जा चुका है कि यह जनादेश उम्मीदों के आधार पर दिया गया है। बेशक ममता जी के पैरों तले लाल गलीचा बिछ गया है। पश्चिम बंगाल ने राजनीति के विकेंद्रीकरण के लिए ऐसी आतंक मुक्त जमीन तैयार कर दी है, जो आने वाले वर्षों में अन्य राज्यों तथा केन्द्र में सत्ता के समीकरण की स्थापित मान्यताओं को बदल कर रख देगी। वाममोर्चा को जोरदार शिकस्त मिली है लेकिन इसका मतलब यह नहीं माना जा सकता है कि वाममोर्चा सियासत से बाहर हो गया है। वामपंथ के सियासी तिलस्म की गारण्टी पीरियड अभी खत्म नहीं हुई है और इस बिसात पर हाथी, घोड़े या वजीर की चालें न सही लेकिन पैदल या प्यादे के तौर पर वह कोई बड़ी चालें तो चल ही सकता है। भारतीय सियासत, राज-काज, डेमोक्रेसी या सोसाइटी में दिलचस्पी रखने वाले किसी भी आदमी के लिए लेफ्ट को नजरंदाज करना मुमकिन नहीं है। जरा सोचिये कि जयप्रकाश नारायण की मोटरकार के सामने उछलकूद मचाने वाली एक युवती, स्लम की साधनहीन लड़की, वहीं अपने खास अंदाज में सोसाइटी का एक दमदार मोहरा बन जाती है और उसे सियासत के कारगर नुख्से में बदलती हुई केन्द्रीय सत्ता तक पहुंचती है और देश के सबसे बुद्धिजीवी प्रांत की सत्ता को उलट पलट देती है। दुनिया में बहुत कम नेता ऐसे होते हैं, जो एक ही वक्त में राजनीति की दो धाराओं में तैरते हैं। बुद्धदेव से ममता की ओर सियासत का सफर होना था, हुआ और यह हुआ भी अपने वक्त पर ही। क्योंकि देश के सबसे बौद्धिक राज्य में तरक्की की तड़प बहुत देर से थी। इस हिसाब से देखा जाये तो इस चुनाव की कथा न ममता जी की है और न बुद्धदेव बाबू की पराजय की है? इस कहानी का नायक बंगाल है। अपने मुकद्दर की जुस्तजू में निकली भारत के एक राज्य की पिछड़ी आबादी ने अपनी वक्ती जरूरत के हिसाब से अपना शंहशाह चुन लिया, पहले वामपंथ और उसके बाद ममता बनर्जी। इसलिए ममता जी की वास्तविक चुनौतियां अब शुरू होंगी। शिक्षा का प्रसार तो है पर नौकरियों की किल्लत है, भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है और निवेशकों ने राज्य से मुंह मोड़ लिया है, बिजली की कमी है और जो है, बहुत महंगी है। आम जनता को गरीबी से बाहर निकालने की राह नहीं सूझ रही है। ममता जी की सियासी चाबी चाहे जितनी 'लार्जर देन लाइफÓ हो जाये पर उनके सिर पर कांटों का ताज रखा हुआ है। पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजे रोमांचक हैं और राजनेताओं को इससे सबक लेनी चाहिए।

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