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Monday, June 13, 2011

राजनीतिक महत्वाकांक्षा का मंचन


11 जून
हरिराम पाण्डेय
बाबा रामदेव ने मांगों को मनवाये बगैर अनशन तोड़ दिया। हफ्ते भर से ज्यादा समय गुजर गया, बाबा रामदेव का मामला चलते हुए। उनके अनशन और आंदोलन को लेकर इस अवधि में काफी कुछ लिखा जा चुका है। बाबा रामदेव के अनशन को लेकर सरकार पर सवाल उठाये जा रहे हैं। कई लोगों ने सन्मार्ग में भी फोन किया और जानना चाहा कि बाबा पर कार्रवाई से क्या भारत सरकार की छवि को आघात लगा है। यहां यह कहने में बिल्कुल हिचक नहीं है कि इससे भारत की छवि को भारी आघात लगा है। यह सारा तमाशा खुद को योगी कहने वाले एक अपढ़ इंसान की महत्वाकांक्षा है। उन्होंने राजनीतिक ड्रामेबाजी पर भ्रष्टïाचार का मुलम्मा चढ़ा कर भोले भाले लोगों को ठगने की ठीक वैसी ही कोशिश की है जैसी कोशिश पतंजलि की कृति को अल्युमिनियम फॉयल में लपेट कर पेश करने की है। बहस का विषय है कि लोकपाल कमिटि की कार्रवाई को टी वी पर दिखाया जाय। इससे क्या होगा? लोक सभा की कार्रवाई जब से टी वी पर दिखायी जाने लगी सदन की कार्रवाई का स्तर और गिर गया। यहां भी वही होगा। सुधार की चिंता छोड़ सब अपने को दिखाने में लग जायेंगे। कोई इस बात पर बहस नहीं करता कि बुराइयों को दूर कैसे किया जाय पर सब इस पर बहस करते पाये जा रहे हैं कि कैसे अपने को 'शोÓ किया जाय। यहां कोई यह कल्पना नहीं कर सकता है कि कोई भी आदमी इस चतुर्दिक व्याप्त भ्रष्टïाचार के कारण सियासी, सामाजिक या कानूनी जटिलताओं में उलझ सकता है। जिन्होंने भारत का प्रशासनिक इतिहास पढ़ा होगा उन्हें मालूम होगा कि मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति के लिये संतानम कमिटि ने सिफारिश की थी और उसे जांच एवं पूछताछ के व्यापक अधिकार देने की सिफारिश भी की थी। उसकी समीक्षा के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कृ पलानी कमिटि बनायी और उस कमिटि ने ऐसे व्यापक अधिकार देने की सिफारिश को अमान्य कर दिया। उस समय से अब तक जो भी सरकार बनी सबने किसी ना किसी रूप में उन सिफारिशों को मानने से इंकार कर दिया। क्योंकि सभी जानते र्हैं कि कोई भी राजनीतिज्ञ चुनाव के खर्चे को लेकर गलतबयानी करता है, यहां तक कि यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बाबा या अन्ना की मांग के अनुरूप लोकपाल बिल को मान भी लेते हैं तब भी पूरी व्यवस्था उसे लागू नहीं होने देगी। यहां एक बार जयप्रकाश नारायण ने भी कहा था 'कि जिस तरह राजनीतिज्ञों और अफसरों में भ्रष्टïाचार व्याप्त है वह केवल लोकायुक्त या लोकपाल के गठन से खत्म हो जायेगा।Ó जे पी के जमाने में अफसरों के तबादले और उनकी तैनाती है राजनीतिज्ञों की नाजायज आय का जरिया थी। अब तो जबसे आर्थिक उदारीकरण हुआ तबसे आय के कई स्त्रोत खुल गये। बेशक भ्रष्टïाचार को मिटाना समय की जरूरत है और इसकी मांग करने का भी लोकतंत्र में सबको हक है पर लोकतंत्र अज्ञानियों की भीड़ को नहीं कहते हैं। लोकतंत्र के कुछ नियम कायदे होते हैं, निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं, निश्चित परम्पराएं होती हैं और रस्मोरिवाज होते हैं। भक्ति का दिखावा धर्म को भी हल्का कर देता है। सवाल पूछा जाता है कि सरकार ने पहले बाबा को प्रदर्शन की इजाजत क्यों दी और अगर दे दी तो उन्हें लाठियों के बल पर वहां से क्यों हटाया? सरकार ने बाबा के साथ जुड़ी भक्तों की भीड़ के कारण अपने वोट बैंक पर होने वाले दुष्प्रभाव के भय से इजाजत दे दी पर बाद में उसे लगा कि यह तो लोकतंत्र का मखौल है तो कानून को अपना काम करने की अनुमति दे दी। इसका मतलब साफ है कि लोकतंत्र के नाम पर निर्वाचित प्रतिनिधियों के अधिकार में कटौती नहीं की जा सकती है। जहां तक रामदेव जी का सवाल है तो उनके अनशन के समय एक तरफ डॉक्टर कहते रहे कि बाबा का स्वास्थ्य ठीक है और सुधार हो रहा है, वहीं मुख्यमंत्री कहने लगे कि बाबा कोमा में जा सकते हैं। इन सबका तो एक ही मतलब निकलता है कि भले ही बाबा के उठाए मुद्दों में जान हो, लेकिन बाबा की नीयत और ईमानदारी पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता है। बाबा पूरी दुनिया के करप्शन पर भले ही बोलते रहे लेकिन जिस राÓय से वह जुड़े हैं, वहां का भ्रष्टाचार उन्हें कभी नजर ही नहीं आया। उत्तराखंड में कुछ ही महीनों में चुनाव होने हैं और मौजूदा बीजेपी सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं। ऐसे में वहां के मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबा का साथ देने की बात कहते हैं और बाबा भी वहां के भ्रष्टाचार पर मूक दर्शक बने रहते हैं, तो शक होना लाजिमी है। सवाल तो यह भी उठ रहे हैं कि कहीं बाबा का अनशन पूरा नाटक ही तो नहीं था। नींबू पानी पीकर और शहद लेकर भला यह कौन सा अनशन हुआ।बाबा को अगर सच में अपने मुद्दों के आगे और देश हित के आगे अपनी जान की परवाह ही नहीं थी तो वह रामलीला मैदान से भागे ही क्यों? अगर नहीं भागते तो क्या होता...पुलिस गिरफ्तार कर लेती....जेल भेज देती....या अगर बाबा पर यकीन करें तो बाबा का एनकाउंटर कर देती....तो.....बाबा तो मौत से नहीं डरते ....तो फिर बाबा को क्या हुआ जो भाग गये और 9 दिन के अनशन पर जब हालत खराब होने लगी तो जूस पीकर अनशन तोड़ दिया। यह देशवासियों के लिये सबक है कि वे ऐसे बाबाओं के चंगुल में आ कर अपना समय बर्बाद ना करें। यह सब उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का निर्लज्ज मंचन है।

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