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Friday, June 10, 2011

गंगा आरती : पुनर्जन्म और कायान्तर के बीच शृ्रंखला


हरिराम पाण्डेय
11जून 2011
कभी शाम को सूरज डूबने ठीक पहले कोलकाता के बाबूघाट से हावड़ा के रामकेष्टïोपुर घाट तक नाव से आकर तो देखें, गंगा के पश्चिमी तट पर सूरज डूबता सा नहीं दिखता लगता है बल्कि आग की एक लपट पानी में बुझती सी लगती है। इसके बाद नदी उस बड़े कटोरे के पानी की तरह काली - नीली हो जाती है जिसमें ढेर सारे कोयले बुझाये गये हों। पर वह अम्बरी आग बुझती नहीं है, थोड़ी ही देर में आग वह टुकड़ा मल- मल कर पानी में नहाया हुआ और पहले से भी ज्यादा चमकता हुआ पानी में से निकल आता है। पीछे कोलकाता शहर की बत्तियां जल उठती हैं, पानी झिलमिल करने लगता है। मैं अक्सर कहता हूं कि वे शहर बड़े अभागे हैं या कहें दुर्भागे हैं जिनकी अपनी कोई नदी नहीं होती और वे शहर बड़े किस्मत वाले हैं जिन्हें छूकर पुण्यसलिला गंगा निकलती है और कोलकाता तो और भी खुशकिस्मत है जहां गंगा अपना सफर खत्म करने के पहले अपने इस धरा पर आने का उद्देश्य खत्म करती सी दिखती है। आज गंगा दशहरा है , आज गंगा के आने की ही सार्थकता नहीं दिखती बल्कि उसके अस्तित्व का मानव जीवन पर प्रभाव भी दिखता है। पता चला कि गंगा दशहरा के अवसर पर रामकेष्टïोपुर घाट पर गंगा की आरती होगी। हालांकि पिछले साल भर से ज्यादा समय बीत गया जब हावड़ा कोलकाता के सुधी सज्ज्नों का एक संगठन- सम्मिलित सद्भावना - हर हफ्ते गंगा की आरती यहां करता रहा है। शास्त्रीय श्लोकों की लय पर आरती की लौ का गंगा के पानी में कत्थक अचानक मन में घूम गया। अभी हाल में ही तो पर्यावरण दिवस था। शहर भर के 'एलीटÓ समुदाय ने तरह- तरह से मनाया यह दिन। फिर कुछ लोगों के समुदाय को गंगा दशहरा मनाने की क्या सूझी? लेकिन इसकी जरूरत है। इस जरूरत को हम या आप या कोई बी गंगा में घूम कर और मंथर गति से प्रवहमान उस धारा से तटों को देख कर ही महसूस कर सकता है। एक अजीब सा अहसास। लगता है इंसान अपने बीतर अपने अतीत को ढो रहा है। उसकी स्मृतियां अभी इतिहास नहीं बन पायीं हैं। गंगा में घूमते हुये हम एक साथ दो-दो स्थितियों से गुजरते हैं।एक है प्रकृति, जो शाश्वत है, और दूसरी है उसकी ऐतिहासिकता। दोनों अपने आप में विपरीत हैं। एक ठोस और स्थाई और दूसरा सतत प्रवहमान। उसमें घूमते हुये हम दूसरे कालखंड में पहुंच जाते हैं जहां हमारा अस्तित्व असकी गवाही नहीं होती बल्कि वह यानी गंगा हमारे होने की साक्षी होती है। वह गवाह है हमारे बीतने की, घुटती इंसानी सभ्यता की और अपने ही कर्मों से मिटने की ओर बढ़ते इस विकास की। यहीं समझ में आता है कि 'एनवायमेंट डेÓ के जलसों- नारों और गंगा आरती की जलती लौ में कितना अंतर है। एक तरफ तो हम संसार को समझने- संचालित करनेश् का दम्भ भरते हैं दूसरी तरफ इतिहास से और भविष्य से त्रस्त हैं। एक त्रस्त और डरी हुई कौम की समझ क्या हो सकती है? पर्यावरण दिवस के नारे- जुलूस उसी डर की अभिव्यक्ति हैं और जलसे उसका 'अपीयरेंस।Ó एक त्र्स्त कौम ना इतिहास रच सकती है और ना असका अतिक्रमण कर सकती है। यहीं आरती जरूरी लगती हे, क्योंकि ना उसमें उसमें ना इतिहास या भविष्य का त्रास है और ना उसे समझने का दंभ। वह एक ऐसा संस्कार है जो हमें इतिहास के उस मिथक क्षण में ले जाता है जब भगीरथ की 'तपस्याÓ के बाद सगर पुत्रों की 'मुक्तिÓ के लिये गंगा स्वर्ग से धरती पर आयी थी। यहां 'तपस्याÓ और 'मुक्तिÓ दो शब्दों में 'इतिहासÓ और 'मिथकÓ का सम्पूर्ण भेद छिपा है। गंगा अपने प्रवाह में जहां इतिहास के पन्ने पलटती हे वहीं मिथक के भेद भी खोलती है। वह हमारे भीतर उन पौराणिक क्षणों का 'रीक्रियेटÓ करती है जिसकी आज हमें बहुत जरूरत है। जो लोग खुद को ज्ञानी कहते हैं वे हो सकता है मिथक की बात पर हंस दें । गंगा की उत्पत्ति और उद्देश्य की अवधारणा को मानने से मना कर दें, वे यह भी साबित कर दें कि गंगा अवतरण के उस मिथक काल की वास्तविकता थी ही नहीं। लेकिन इन सब से ना सपना झूठा हो जाता है और ना आकांक्षा की तीव्रता मंद पड़ जाती है। दर असल सारा मिथक प्रकृति के करीब जाने और उसे समझने का प्रयास है। यह करीब जाना एक तरह से अपने छिछोरे अहम का अतिक्रमण करना भी है। गंगा की आरती गंगा को बचाने की कोशिश नहीं है, जैसा कि इन दिनों फैशन में कहा जाता है, बल्कि उसे समझने का प्रयास है। गंगा के सम्बंध में सारे मिथक उसे नदी नहीं देवी कहते हैं। यहां आस्था प्रमुख है शंका क्षीण है। आज हमारे भीतर आस्था पीण हो गयी है। हम अंधेरे की भाषा पढ़ नहीं पाते और उसे आतंक का पर्याय मान लेते हैं। आज का मनुष्य एक तरफ प्रकृति के विनाश और दूसरी तरफ स्मृति की मृत्यु के बीच झूल रहा है। आज की सभ्यता की कोशिश यह है कि वह स्मृति की मृत्यु और प्रकृति के विनाश को अलग- अलग खानों में बांट दे। यह अलगाव की कोशिश ही मनुष्य की त्रासदी है। सगर पुत्रों की जिस मुक्ति की कथा गंगा के साथ जुड़ी है वह इसी अलगाव को खत्म करने का बिम्ब है। गंगा इस सभ्यता के इसी अलगाव को खत्म करने में लगी है। वर्ना दुनिया की कोई भी नदी इतने लम्ब अर्से तक एक पूरी जाति की आस्था का वाहक नहीं बनी रह सकती है। यह प्रकृति की वास्तविकता के साथ- साथएक पौराणिक संकल्पना है जो पुनर्जन्म और कायान्तरयों के बीच अटूट श्रृंखला बनाती है। यहां गंगा आरती के समय एक अजीब रोमांच होता है। सामने दूसरे तट पर झिलमिलाता शहर और बीच में कांपता चांद। जैसे रोशनी के फ्ूल खिले हों चारों ओर और इसमें आरती गाते कंठ स्वर तथा शंख की लम्बी अनुगूंज एक पक्का आश्वासन देती है कि गंगा है और गंगा है तो हमारा अस्तित्व है, हमारा भविष्य है।

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