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Wednesday, June 1, 2011

ममता जी के लिये सबसे बड़ी चुनौती


हरिराम पाण्डेय
29.05.2011
पश्चिम बंगाल या यों कहें कि बंगाल को कभी इतिहास और अध्यात्म की धरती से संबोधित किया जाता था। इसकी विरासतों से भरी तहजीब भी सर्वथा से अपने आप में एक उदाहरण रही है। लेकिन आज वही विभ्रम के बवंडर में फंसी हुई है और खुद को कोस रही है। एक जमाने में कहावत थी कि जो बंगाल आज सोचता है वह पूरा देश कल सोचता है। यानी मेधा के मामले में बंगाल सबसे आगे हुआ करता था। रोजगार और कल- कारखानों में अगुआ बंगाल अन्य प्रांतों के प्रवासी मजदूरों की कथाओं का नायक रहा है। आज खुद विपदगाथा का केंद्र बन गया है। कभी यह राज अपने आचरण और बड़प्पन के लिये देश में विख्यात था। लेकिन अब वही बंगाली भद्रलोगों का समाज मनोवैज्ञानिक रूप में छीज गया सा दिख रहा है। आज वह एक ऐसे विषम मोड़ पर खड़ा है जहां से आगे बढऩे में उसे भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। मानवीय सहिष्णुता प्राय: खत्म हो गयी है ममता जी के बंगाल के लिये यह सबसे बड़ी चुनौती है। साढ़े तीन दशक के माक्र्सवादी शासन ने उम्मीदों की मंजिलों के सपने दिखा कर इंसानी सोच और आंतरिक निर्णय की धार को कुंद कर दिया है जिससे उसमें आक्रामकता बढ़ गयी है। आज जरूरत है एक आक्रामक उम्मीदों से लालायित समाज को सहिष्णु और संगतिपूर्ण समाज में बदलने की। यह सरल काम नहीं है। इसके रास्ते में अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, पूंजी निवेश और ढांचागत विकास इत्यादि बड़े अवरोधक हैं जो किसी भी प्रकार के विकास की गति को तेज नहीं होने देंगे। हालात जब बहुत बिगड़े तो यहां से प्रतिभा का तीव्र पलायन हुआ और अब कोई यहां आना नहीं चाहता। पहल और प्रतिबद्धता का भीषण अभाव हो गया। पहले जो सियासी हालात थे वे लोगों को व्यर्थ जुझारूपन से उन्मादित रखने की चेष्टïा में रहते थे। 'लड़ाई - लड़ाई Ó जैसे नारों से उन्मत समाज को आजादी के जुझारू नेताओं से जोड़ कर झूठे भुलावे में रखता था। बंगाल की सबसे बड़ी मजबूरी है कि उसे अपने विगत काल प्रस्थान विंदुओं से आगे बढ़ कर नये मीलों को तय करना है और इस तरह के लचीलेपन का उसमें भारी अभाव है। ममता जी को इस नयी स्थिति से निपटना होगा। ममता जी को अपने दिखावों से ऊपर उठ कर काम करना होगा और बंगाल की आबादी को घोर निराशा से बाहर निकालना होगा। विकास की तरफ बहुत तेज कदम बढ़ाने के अपने खतरे भी हैं। पड़ोसी राज्यों से श्रमिकों की बाढ़ आयेगी और इससे जातीय और सामुदायिक विवाद पैदा होगा। बंगाल को अपने मुख्य मंत्रियों से बड़े प्रतिगामी रिश्ते रहे हैं। प्रफुल्ल बाबू आये तो उन्हें भीषण अकाल का सामना करना पड़ा और उन्होंने चावल मिलों पर भारी लेवी लगा दी तथा शहरी क्षेत्रों में भीषण राशनिंग कर दी, नतीजा उल्टा हो गया। उनका यह कदम सियासी तौर पर आत्मघाती सिद्ध हुआ। उनका नाम प्रफुल्ल था पर पूरे राज्य में प्रफुल्लता नहीं थी। उनका कार्यकाल सियासी तौर पर आत्मघाती सिद्ध हुआ। उनके बाद अजय मुखर्जी आये लेकिन अपने नाम के अनुरूप कभी अजेय नहीं रहे। उनके बाद सिद्धार्थ शंकर आये और पूरा शासनकाल नक्सल आंदोलन से जूझते हुए निकल गया। ज्योति बसु आये। ज्योति मतलब रोशनी पर उनका कार्यकाल बिजली के अभाव के लिये ख्यात रहा। तब आये बुद्धदेव। बुद्ध की तरह उनमें आत्म ज्ञान नहीं था और पूरा कार्यकाल अपने विरोधियों से लड़ते हुए गुजार दिया उन्होंने। बंगाल में सबसे पहले जरूरत है सामाजिक आचरण में परिवर्तन की। ताकि वह सकारात्मक सोच सके और दुनिया के साथ कदम मिलाकर चल सके। ममता का अर्थ होता है स्नेह , प्रेम। लेकिन उन्होंने जब सत्ता संभाली है तो राज्य तथा समाज में असहिष्णुता एवं आक्रोश की प्रचुरता है। इस प्रवृत्ति को बदलना ममता जी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है या उनका सबसे बड़ा कार्य है। इससे बेवजह की यूनियनबाजी और अन्य प्रांतों के श्रमिकों के प्रति ईष्र्या का भाव घटेगा।

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