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Saturday, August 27, 2011

यदि आंदोलन फेल हुआ तो...


हरिराम पाण्डेय
23 अगस्त 2011
अबसे लगभग 36 बरस पहले इसी रामलीला मैदान से सम्पूर्ण क्रांति के नारे के जनक जयप्रकाश नारायण ने ऐलान किया था 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। Ó और इस नारे के बाद जनता तो नहीं आयी बेशक जनता पार्टी सत्ता में आ गयी और साझे की यह पार्टी साल भर से ज्यादा नहीं चल पायी और साझे की हांड़ी चौराहे पर फूट गयी। फिर वही हुआ जो पहले था। जिन छात्रों को 'जिगर के टुकड़ेÓ कह कर जे पी ने स्कूलों- कालेजों से बाहर लाकर सड़कों पर नारेबाजी के लिये खड़ा कर दिया था उन्हीं छात्रों के समूह से लालू और चंद्रशेखर जैसे लांछित नेता निकले। आज हमारा देश फिर एक वैसे ही आंदोलन के मध्य खड़ा है। बड़ी- बड़ी बातें कहीं जा रही हैं। छात्र फिर उसी पुराने रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं। परिवर्तन का शंखनाद भी हो रहा है। लेकिन क्या ऐसा संभव है? भ्रष्टïाचार से ज्यादा खतरनाक है भ्रष्टï बनाने वाला तंत्र। इस पर ना अण्णा की नजर है और ना औरों की। राजनीति का अर्थव्यवस्था से नजदीक का रिश्ता है। हमारी आज की बाजार चालित अर्थव्यवस्था में उसे चलाने की शक्ति व्यापारी, उद्योगपति व कॉरपोरेट जगत के हाथों में है। ये तबके या तो संसद व विधानसभाओं में अपने नुमाइंदे भेजते हैं अथवा चुने हुए सांसदों व विधायकों पर असर डालकर अपने फायदे के कानून व नीतियां बनवाते हैं। किसानों- मजदूरों का ज्यादातर शोषण बेलगाम मुनाफा के जरिए होता है जिसे कानून जायज मानता है। जहां कानून आड़े आता है, ये वर्ग घूस देकर अपना काम निकाल लेते हैं। ये एक करोड़ घूस देकर 10 करोड़ का फायदा उठाते हैं। घूस संस्कृति का असली लाभ उठाने वाला यह वर्ग नेताओं पर (अक्सर मामूली अनियमितताओं को लेकर) कीचड़ उछलवाता है और खुद अछूता और निष्कलंक दिखने की कोशिश करता है। राजनैतिक दल अपने अस्तित्व के लिए उन पर आश्रित हैं क्योंकि उनसे चंदा आता है। भ्रष्टाचार सभी दलों का तन ढंकता है, इसे खत्म करने के लिए उसे टिकाने वाली व्यवस्था को समझना जरूरी है। अन्ना ने जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार से लडऩे या ऊंचे स्तर पर काले धन व घूस के स्रोत को सुखाने का कोई प्रोग्राम या सोच नहीं रखा है। बल्कि अपने समर्थकों से भ्रष्टाचार मुक्त आचरण का आग्रह न रखने के कारण भ्रष्टाचार में लीन तत्व भी (चाहे वे व्यापारी हों या अफसर) उनकी तरफ आ रहे हैं। चूंकि यही तत्व सांप्रदायिकता के आधार हैं इसलिए खतरा है कि इस मुहिम से कहीं सांप्रदायिक ताकतें न मजबूत हो जाएं। डर है कि सिर्फ सत्तारूढ़ गठबंधन को निशाना बनाने की इस मुहिम से सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में वापसी में मदद मिलेगी भले ही कुछ उदार लोग भी इस मुहिम में शामिल हो गए हों। यहां यह भी सवाल है कि क्या आंदोलन इस बात को सही तरीके से भीड़ तक पहुंचा पाया है कि लोकपाल तो महज पहला कदम है, भ्रष्टïाचार मिटाने के लिए कई मुकाम पार करने होंगे और यह रातोंरात नहीं हो जाएगा। अण्णा सुपरमैन नहीं हैं और लोकपाल कतई भगवान नहीं होगा। लोक आंदोलन हमेशा आसान नारों का सहारा लेते हैं और निराशा के खतरे को साथ लिए चलते हैं। अगर आंदोलन नाकाम रहा या कामयाब होकर भी बेअसर साबित हुआ, तो क्या होगा? भारत की महान हताशा उसका क्या हाल करेगी?

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