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Saturday, August 27, 2011

ताजा आंदोलन से उपजे चंद सवाल


हरिराम पाण्डेय
24 अगस्त 2011
अभी हाल में किरण बेदी ने कहा था 'अण्णा इज इंडिया एंड इंडिया इज अण्णा।Ó उनकी यह बात अचानक इमरजंसी के उस अवसर की याद दिलाती है जब एक महानुभाव ने कहा था 'इंदिरा इज इंडिया....।Ó इसके बाद क्या हुआ था यह सब जानते हैं। अभी इन बातों से अलग एक बात विचारणीय है कि अगर टीम अण्णा के मनचाहे रूप में यह बिल पास नहीं हुआ तो इस आंदोलन का रूप क्या होगा? औरों की तरह इस सवाल का जवाब स्पष्टï नहीं है। पर अण्णा की अगुवाई में शुरू हुए इस आंदोलन से यह बात जरूर साफ हो गयी है कि राजनीतिक पार्टियों से आम आदमी का मोहभंग हुआ है। इन पार्टियों के नेताओं के झूठे वादों से बार-बार आहत हुई आम आदमी की आस्था को संभावनाओं का नया ठौर अण्णा के रूप में दिख रहा है। अण्णा ने इस जनता से कोई वादा नहीं किया है, पर जनता उनसे बार-बार वादा कर रही है कि अण्णा हम तुम्हारे साथ हैं। आखिर इस आस्था की वजह क्या है? क्या कारण है कि अनिश्चित, अनसुलझे और अनगढ़ रास्ते पर लोग अण्णा के पीछे भागे चले जा रहे हैं। इस आस्था की वजह है हाल के वर्षों में उपजी निराशा और नाउम्मीदी। यह नाउम्मीदी क्यों? डॉ. राधाकृष्णन ने चेताया था कि 'एक धनलोलुप और बिकाऊ शासक वर्ग स्वप्न को दु:स्वप्न में बदल सकता है: जब तक कि हम शीर्ष स्थानों से भ्रष्टाचार को खत्म न कर दें, भाई-भतीजावाद, सत्ता लोलुपता, मुनाफाखोरी और काला बाजारी की हर जड़ को न उखाड़ फेंके , जिन्होंने हमारे महान देश के नाम को खराब किया है ..तब तक हालात नहीं सुधरेंगे।Ó इसी सुधार की उम्मीद जनता को अण्णा से है। आज अण्णा हजारे ठीक उसी तरह का प्रतीक बन गये हैं, जैसे जयप्रकाश नारायण 1974 में थे। उनकी खास मांगें उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना कि उनके द्वारा उन मांगों को उठाया जाना। किसी ज्यादा योग्य सरकार ने अण्णा की शुरुआती मांग मान ली होती, लोकपाल मसौदे के उनके ड्राफ्ट को लोकसभा में रख दिया होता और लंबी वैधानिक प्रक्रिया चलने दी होती। इससे आधिकारिक तौर पर प्रतिक्रिया देने की जिम्मेदारी सभी राजनीतिक दलों तक पहुंच जाती, बजाय व्यापक तौर पर कांग्रेस संगठन के। यहां दो बातें काफी स्पष्ट हैं। एक , यह मसला आंदोलन की विश्वसनीयता से ज्यादा सरकार की गिरती हुई छवि और साख को दर्शाता है। अण्णा आंदोलन में लोगों का विश्वास हो या नहीं , सरकार पर उन्हें पूरा अविश्वास है। हमारे लोकतंत्र ने हमें एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था दी है जिसने लोगों में इसके प्रति संदेह को बढ़ाया है। ऐसे में सरकार के खिलाफ चलाया जाने वाला कोई भी आंदोलन आसानी से लोगों के दिलो - दिमाग पर छा सकता है। ऐसे में अगर अण्णा का यह आंदोलन औंधे मुंह गिरा, तो? यह सवाल जितनी बेचैनी पैदा करता है उससे तीखा यह सवाल है कि अगर आंदोलन कामयाब हुआ और जनता ने जितनी उम्मीदें बांध रखी हैं उन्हें वह पूरी होती नहीं दिखीं तो क्या होगा?

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