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Tuesday, August 2, 2011

अमरीका का संकट : भारत के लिये अवसर

हरिराम पाण्डेय
2 अगस्त 2011
अमरीका भले ही दुनिया का सबसे धनी देश है, लेकिन अगले साल जुलाई में होने वाले राष्टï्रपति चुनाव की गहमागहमी और उसकी प्रदूषित राजनीति ने वहां की अर्थव्यवस्था का चीर हरण कर लिया है। अब तो यह भी कहा जाने लगा है कि यहां के दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों - सत्ताधारी डेमोके्रट्स और मुख्य प्रतिद्वंद्वी रिपब्लिकन्स के बीच यदि यों ही बंदरबांट का खेल चलता रहा, तो संभव है कि चीन जल्दी ही अमरीका की अर्थव्यवस्था पर हावी हो जाए। फिलहाल वह दूसरे पायदान पर खड़ा है। कर्ज संकट के चलते अमरीकी अर्थव्यवस्था में उथल - पुथल की आशंका से पूरी दुनिया में बेचैनी है। बहुत सारे मुल्क परेशान हैं कि अगर अमरीका अपना कर्ज चुकता करने या उसकी अदायगी की सीमा बढ़ाने में कभी नाकाम रहा, तो जो महामंदी आएगी, वह कैसी होगी। फिलहाल कर्ज संकट से निकलने के जो उपाय अमरीकी नीति - नियंता कर रहे हैं, उससे तात्कालिक तौर पर थोड़ी राहत जरूर मिलेगी। लेकिन अब इस तरह के संकटों से चीन और भारत जैसे देशों को बहुत ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है। वे अमरीकी अर्थव्यवस्था में आने वाली उथल - पुथल को अपने लिए अवसर में बदल लेने में समर्थ हो चुके हैं। पिछले चार साल से अमरीका को मंदी ने घेर रखा है। इससे अर्थव्यवस्था में सुधार आना तो दूर, यहां कुल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अर्थात् कुल आमदनी में भी वृद्धि नहीं हो रही है। पर खर्चे ज्यों के त्यों बने हुए हैं। उस पर भी तेवर चढ़े हुए हैं। अब जब राष्टï्रपति का चुनाव सिर पर आन खड़ा हुआ है, तो परंपरावादियों की और धन कुबेरों की ग्रैंड ओल्ड पार्टी - जीओपी आम आदमी से जुड़ी ओबामा की डेमोक्रेट सरकार को आने वाले चुनाव में जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए चाणक्य की तरह चालें चल रही है।
अब यह किसी से छिपा नहीं है कि अफगानिस्तान और इराक के दो युद्धों में खरबों डॉलर झोंक देने वाली दोनों ही दलों की सरकारों ने (पहले रिपब्लिकन और फिर डेमोक्रेट्स ने) नाक के सवाल के नाम पर यहां की आम जनता के हितों की ही कुर्बानी दी है। ओबामा के 30 माह के कार्यकाल में करीब सवा खरब डॉलर अतिरिक्त व्यय हुआ है। इस खर्च का अमरीकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में कोई उपयोग नहीं हुआ। हां , इसने रिपब्लिकन नेताओं को ओबामा की नीतियों की आलोचना का एक कारगर मुद्दा जरूर दे दिया है। हालांकि सच तो यह है, और इसे वे भी जानते हैं कि इराक और अफगानिस्तान में युद्ध की आग उन्हीं की लगायी हुई है। निवेश के सुरक्षित ठिकाने के तौर पर अमरीकी अर्थव्यवस्था में उसका भरोसा तो पहले ही टूट चुका था, अब यूरोपीय देश भी अमरीका की गलतियों की कोई भरपाई खुद करने से कतरा रहे हैं। वे अपने निवेशकों को नए ठिकाने खोजने और अमरीका से व्यापार के मामले में भी सावधानी बरतने की ताकीद कर रहे हैं। वह दौर खत्म हो रहा है, जब भारी - भरकम निवेश, निर्यातकों के विशाल बाजार और वित्तीय प्रणाली को नई दिशा देने के मामले में अमरीका सबका अगुआ था। लोगों को भरोसा था कि राष्टï्रभक्ति और राजनीति के नाम पर दोनों दल किसी तरह जोड़ - तोड़ कर ऐसे किसी समझौते पर पहुंच ही जाएंगे। लेकिन कर्ज से दबी यह अर्थव्यवस्था और ऊंची नाक वाला मिजाज कब तक इस देश को नंबर वन की कुर्सी पर बैठने देगा। इससे भारत जैसे देशों के लिए नए अवसर पैदा हुए हैं। उनके लिए मौका यह है कि जो निवेश इधर अमरीकी डॉलर की फीकी पड़ती चमक के कारण सोने और स्विस फ्रैंक में बढऩा शुरू हुआ है , उसे वे अपने टिकाऊ बाजारों की तरफ मोड़ लें। पर इसके लिए जरूरी है कि भारत इस निवेश को खींचने के उपाय करने के साथ - साथ अमरीकी बाजारों पर निर्भर अपने निर्यात के लिए भी नए ठिकाने खोजे।

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