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Sunday, September 18, 2011

अनशन से सरकार बदलेगी व्यवस्था नहीं

हरिराम पाण्डेय
19 सितम्बर 2011
गुजरात के मुख्य मंत्री और भारतीय दक्षिणपंथी राजनीति के सुपरमैन नरेंद्र मोदी शनिवार से अनशन पर हैं। इस अनशन को लेकर ढेर सारी बातें हो रही हैं। कहीं आलोचना हो रही है और कहीं प्रशंसा। जबसे अण्णा हजारे ने अनशन के माध्यम से सरकार को घुटने टेकने के लिये मजबूर कर दिया था तबसे अनशन को दबाव का एक साधन बना लिया गया। और नरेंद्र मोदी विश्लेषण में एक शब्द है ' टीना फैक्टरÓ यानी जिसका कोई विकल्प नहीं हो। जिन्होंने इस शब्द का ईजाद किया था वे लोग ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित नेतृत्व शून्यता के नियम को भूल गए थे। यह नियम बताता है कि नेतृत्व शून्यता ज्यादा दिनों तक नहीं टिकती। जनभावना और सहनशीलता की एक सीमा है। एक बार जब यह सीमा पार हो जाती है, तो नेतृत्व अपने आप शून्य से उभरता है। कई बार यह बेचेहरा होता है, जैसा कि हमने इसे अरब क्रांति के दौरान देखा। कभी यह बेहद निम्न स्तरीय शालीन चेहरे के रूप में होता है और रातोंरात एक बड़े चेहरे के रूप में उभरता है, जैसे अण्णा हजारे।
सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व में दिलचस्प संबंध है। बहुत से विशेषज्ञ यह नहीं मानते इनमें कोई संबंध है, लेकिन एक खास स्थिति में इन दोनों में मजबूत रिश्ता होता है। यह अक्सर भारत और दुनिया के कई देशों में देखने को मिला है। भारत में गांधी से बहुत पहले सामाजिक नेतृत्व का न सिर्फ अस्तित्व था, बल्कि वह राजनीतिक नेतृत्व से कहीं अधिक मजबूत था। उस दौर में राजा अपने दुश्मनों से नहीं, बल्कि लोगों द्वारा पूजे जानेवाले साधु और फकीरों से डरते थे। इसका कारण था कि उनका कोई गुप्त एजेंडा नहीं होता था। कालांतर में ऐसे नेतृत्व का चेहरा भले बदल गया, लेकिन भारतीय मूल्य व्यवस्था में यह अवधारणा बची रही। हम वैसे लोगों का सम्मान करते रहे, जिन्होंने व्यापक समाज की बेहतरी के लिए अपने व्यक्तिगत हितों की तिलांजलि दे दी। यही कारण है कि प्रधानमंत्री पद त्यागने के सोनिया गांधी के फैसले को देशवासियों ने श्रद्धा और सम्मान की नजर से देखा। मनमोहन सिंह के प्रति सम्मान की भी यही वजह है, क्योंकि जनता जानती है कि वह व्यक्तिगत रूप से भ्रष्ट नहीं हैं। जब देश के लोग भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर काफी गुस्से में थे, तब भी वे बेदाग नेता के रूप में इन दोनों का आदर करते थे। यहां तक कि बहुसंख्यक लोग मानते हैं कि जो सरकार वे चलाते हैं, वह अयोग्य है और उनके कई सहयोगी भ्रष्ट हैं।
यही कारण है कि भारत का विशाल मध्यवर्ग भ्रष्टाचार के खिलाफ आखिरकार सड़क पर उतर आया। अण्णा हजारे दरअसल कांग्रेस के खिलाफ नहीं थे, लेकिन कांग्रेस ने यह जताकर बड़ी गलती की कि अण्णा उसके खिलाफ हैं। कांग्रेस को यह आत्मघाती कदम उठाने से बचना चाहिए था, लेकिन सत्ता में रहते हुए कांग्रेसी घमंडी हो जाते हैं। नतीजतन वही होना था, जो हुआ। व्यवस्था बनाम अण्णा की लड़ाई कांग्रेस बनाम अण्णा की लड़ाई बन गयी। इससे कांग्रेस ही नहीं, सोनिया, मनमोहन और राहुल की छवि भी खराब हुई। कांग्रेस ने अण्णा को अपना विरोधी मानकर जैसी गलती की, अब भाजपा भ्रष्टाचार-विरोधी माहौल को अपने अनुरूप मानकर वही गलती कर रही है। यह लहर भ्रष्टाचार के विरोध में है और किसी पार्टी के पक्ष में नहीं है। इसलिए अगर यह कांग्रेस को व्यापक स्तर पर नुकसान पहुंचा रही है, तो दूसरे दलों को भी सूक्ष्म स्तर पर चोट कर रही है। चुनावी नजरिये से कहें, तो कांग्रेस शासित प्रदेशों में यह गैरकांग्रेसी पार्टियों को मदद कर रही है। लेकिन जिन राज्यों में भाजपा-राजग सत्ता में है, वहां यह लहर उसको नुकसान पहुंचाएगी। जिनको यह महसूस हो रहा है कि नरेंद्र मोदी के अनशन से भाजपा को लोकसभा चुनाव में लाभ होगा वे संभवत: दिवास्वप्न देख रहे हैं। वैसे यह तो तय है कि सरकार चाहे किसी की भी हो, अण्णा का मुद्दा खत्म होने वाला नहीं है। अण्णा अब एक विचार बन गये हैं। यदि नरेंद्र मोदी और उनके साथी नेता समझते हैं कि सरकार बदलने पर लोग भ्रष्टाचार को भूल जाएंगे, तो वे वही गलती कर रहे हैं, जो कांग्रेस ने की। भूलना नहीं चाहिए कि अण्णा का आंदोलन व्यवस्था के खिलाफ है। अगर अण्णा चुप हो जाते हैं, तो कोई और नेतृत्व के उस शून्य को भरेगा तथा व्यवस्था को चुनौती देगा। नरेंद्र मोदी के अनशन का लक्ष्य सरकार को बदलना है व्यवस्था को नहीं। इसलिये इस अनशन से कोई ज्यादा उम्मीद नहीं है।

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