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Sunday, September 18, 2011

हमारी हिन्दी और उनकी अंग्रेजी

हरिराम पाण्डेय
14सितम्बर 2011
आज हिन्दी दिवस है। इस अवसर पर जरा कल्पना करें एक चुटकुले की, जिसमें कहा जाय कि 'पैंसठ साल से एक आजाद देश जिसकी कथित तौर पर राष्टï्रभाषा हिन्दी है उस देश में बड़ा अफसर बनने के लिये सबसे बड़ी योग्यता अंग्रेजी ज्ञान है।Ó कैसी हास्यास्पद स्थिति है, आप सोच सकते हैं। जिस दिन लार्ड मैकाले का सपना पूरा और गांधी जी का सपना ध्वस्त हो जाएगा, उस दिन देश पूरे तौर पर केवल 'इंडियाÓ रह जाएगा। हो सकता है, समय ज्यादा लग जाए, लेकिन अगर भारतवर्ष को एक स्वाधीन राष्टï्र बनना है, तो इन दो सपनों के बीच कभी न कभी टक्कर का होना निश्चित है।
जो देश भाषा में गुलाम हो, वह किसी बात में स्वाधीन नहीं होता और उसका चरित्र औपनिवेशिक बन जाता है। यह एक पारदर्शी कसौटी है कि चाहे वे किसी भी समुदाय के लोग हों, जिन्हें हिंदी को राष्टï्रभाषा मानने में आपत्ति है, वह भारतवर्ष को फिर से विभाजन के कगार तक जरूर पहुंचाएंगे। चाणक्य का कहना था कि 'किसी भी देश और समाज के चरित्र को समझने की कसौटी है कि उस देश और समाज का भाषा से सरोकार क्या है। जबकि भारतवर्ष में भाषा या भाषाओं के सवालों को निहायत फालतू करार दिया जा चुका है। मैकाले का मानना था कि जब तक भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा। मैकाले का सोच था कि हिंदुस्तानियों को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है।
यह ऐसे अंग्रेजीपरस्त नेताओं का ही काला कारनामा था कि अंग्रेजी को जितना बढ़ावा गुलामी के 200 वर्षों में मिल पाया था, उससे कई गुना अधिक महत्व तथाकथित स्वाधीनता के केवल 65 वर्षों में मिल गया और आज भी निरंतर जारी है। जबकि गांधी जी का सपना था कि अगर भारतवर्ष भाषा में एक नहीं हो सका, तो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकेगा। भारत की प्रादेशिक भाषाओं के प्रति गांधी जी का रुख उदासीनता का नहीं था। वह स्वयं गुजराती भाषी थे, किसी अंग्रेजीपरस्त कांग्रेसी से अंग्रेजी भाषा के ज्ञान में उन्नीस नहीं थे, लेकिन अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम छेडऩे के बाद अपने अनुभवों से यह ज्ञान प्राप्त किया कि अगर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को पूरे देश में एक साथ आगे बढ़ाया जा सकता है, तो केवल हिंदी भाषा में, क्यों कि हिंदी कई शताब्दियों से भारत की संपर्क भाषा चली आ रही थी।
भाषा के सवाल को लेकर मैकाले भी स्वप्नदर्शी थे, लेकिन उद्देश्य था, अंग्रेजी भाषा के माध्यम से गुलाम बनाना। गांधी जी स्वप्नद्रष्टा थे स्वाधीनता के और इसीलिए उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया। पूरे विश्व में एक भी ऐसा राष्टï्र नहीं है, जहां विदेशी भाषा को शासन की भाषा बताया गया हो, सिवाय भारतवर्ष के। हजारों वर्षों की सांस्कृतिक भाषिक परंपरावाला भारतवर्ष आज भी भाषा में गुलाम है और आगे इससे भी बड़े पैमाने पर गुलाम बनना है। यह कोई सामान्य परिदृष्टि नहीं है। अंग्रेजी का सबसे अधिक वर्चस्व देश के हिंदी भाषी प्रदेशों में है।
भाषा में गुलामी के कारण पूरे देश में कोई राष्ट्रीय तेजस्विता नहीं है और देश के सारे चिंतक और विचारक विदेशी भाषा में शासन के प्रति मौन हैं। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा के सवालों को जैसे एक गहरे कोहरे में ढंक दिया गया है और हिंदी के लगभग सारे मूर्धन्य विद्वान और विचारक सन्नाटा बढ़ाने में लगे हुए हैं। राष्ट्रभाषा के सवाल पर राष्ट्रव्यापी बहस के कपाट जैसे सदा-सदा के लिए बंद कर दिए गये हैं। कहीं से भी कोई आशा की किरण फूटती दिखायी नहीं पड़ती।
इतने के बावजूद भारतीय अंग्रेजी का कद्र क्या है। प्रेमचंद और तुलसी को छोडिय़े हिन्दी के दूसरे दर्जे के लेखकों की श्रेणी में भारतीय अंग्रेजी लेखकों को खड़ा कर सकते हैं तो नाम गिनाएं। कैसी विडम्बना है कि बचपन से 6 वर्षों तक सी ए टी कैट और आर ए टी रैट रटता हुआ बच्चा अपने जीवन के 26-27 साल अंग्रेजी के ग्रामर, स्पेलिंग और प्रोननसिएशन सीखने में लगा देता है और तब भी अशुद्ध उच्चारण और शब्द प्रयोग करता है। भारत के जितने अंग्रेजीदां हैं उनमें से एक प्रतिशत भी ऐसे नहीं हैं जो उसी भाषा में सोचते हों और सीना ठोंक कर कह सकें कि वे उसी स्तर की अंग्रेजी जानते हैं जिस स्तर की हिन्दी एक अच्छी हिन्दी पढ़ा भारतीय जानता है।

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