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Tuesday, October 25, 2011

तमसो मा ज्योतिर्गमय



हरिराम पाण्डेय
26 अक्टूबर 2011
आज दीपावली है, अंधेरे को दूर भगाने का त्योहार है। इस त्योहार का भारतीय लोकजीवन में विशेष आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व है। दीपावली की रात दीपक जलाकर हम अंधेरे पर उजाले की विजय का उत्सव मनाते हैं। अंधेरा असत्य, अन्याय या नकारात्मक पक्ष का सूचक है, वहीं उजाला सत्य, न्याय और सकारात्मक पक्ष का सूचक है। समाज में व्याप्त बुराइयों पर अच्छाई की विजय का प्रतीक भी है दीवाली। यह पर्व सुख और समृद्धि का प्रतीक भी है। इस पर्व का व्यक्तिगत जीवन में भी काफी महत्व है। इस दिन हम दीप जलाकर अन्याय, असत्य और अंधेरे को दूर भगाने के साथ ही मन के मलिन पक्ष को भी स्वयं से दूर करते हैं। उजाला हमारे अंदर सत्य, न्याय और अच्छे गुणों का समावेश करता है।
यहां एक बात उठती है कि अंधेरा यदि प्रकाश की अनुपस्थिति है, तो छाया अंधेरे और प्रकाश के बीच की एक ऐसी स्थिति है जो होकर भी नहीं है और न होकर भी है। यहां एक दर्शन है। अंधकार का अर्थ है एक काला आकार जो अंधेरे का समुद्र है। आंख बंद करते ही सब अंधेरा ही अंधेरा है। उसका कोई रूप - रंग नहीं होता लेकिन छाया ऐसी नहीं है। छाया का अर्थ प्रकाश तो है, किन्तु उसके मार्ग में कोई बाधा आ गयी है। उस बाधा की पृष्ठभूमि में प्रकाश उपस्थित रहता है। उसकी किरणें उस वस्तु को न भेद कर उसके इधर-उधर बिखर गयी हैं। उस वस्तु का बिम्ब ही छाया है। इस छाया को पहचानना बहुत ही कठिन है। यह तो बताया जा सकता है कि यह पेड़ की छाया है या किसी वस्तु की छाया है। पर यह बताना बड़ा कठिन है कि यह किस विशेष वृक्ष या वस्तु की वास्तविक छाया है। जब तक कि उस वस्तु को पहले न देखा हो। छाया विश्रामस्थल तो हो सकती है लेकिन वहां स्पष्टता नहीं हो सकती; क्योंकि वहां प्रकाश नहीं। जहां प्रकाश नहीं, वहां स्पष्टता भी नहीं होगी। बिना ज्ञान के चलना अंध मार्ग पर चलना है। इसीलिए ज्ञान प्राप्ति को ब्रह्म और मोक्ष का मार्ग व द्वार बताया गया है। प्रकाश के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। प्रकाश का अवरोध ही छाया का निर्माण करता है लेकिन व्यक्ति की पृष्ठभूमि में प्रकाश की उपस्थिति छाया का निर्माण नहीं करती अपितु वह परछाई बनाती है। परछाई में छाया तो है, लेकिन वह 'परÓ अर्थात दूसरे की है। भला स्वयं उसकी छाया को दूसरे की छाया कैसे कहा जा सकता है?
हम जो कुछ भी कर रहे हैं, कह रहे हैं, वह सब दूसरों का ही तो है, सिवाय इस शरीर के, तो बात स्पष्ट है कि इस शरीर से जो कुछ भी हो रहा है, वह अपनी छाया न होके परछाई ही तो है। साथ ही यहां जिस प्रकाश की बात कही गयी है, वह प्रकाश स्व-बोध का प्रकाश है, यह स्व को जानने का है, स्व को पा लेने का है। और जब व्यक्ति अपनी निजता को पा लेता है, तो उसका समूल परिवर्तन हो जाता है क्योंकि वह दुनिया के सामने मौलिक व्यक्तित्व के रूप में सामने आता है। इसलिए वह विद्रोही मान लिया जाता है। दूसरों का अन्धानुकरण न कर व्यक्ति को अपने स्वतंत्र और मौलिक अस्तित्व का निर्माण करना चाहिए। इसी प्रकार के व्यक्तित्व दूसरों के लिए छाया बनते हैं। छाया कल्याणकारी होती है, पर परछाई किसी भी रूप में कल्याणकारी नहीं होती। प्रकाश बनने का प्रयास करना चाहिए, यदि प्रकाश न बन सकें तो छाया भी बन सकते हैं लेकिन परछाई नहीं बनना चाहिए, उसमें न तो सुख है और न ही आनन्द। प्रकाश के समस्त अवरोधों को गिराकर हमें प्रकाशमय बन जाना चाहिए : तभी हम प्रकाशपुंज होकर ज्योतिर्मय हो सकते हैं।
ऋषियों ने इसीलिए बड़े स्पष्ट शब्दों में प्रार्थना की-'तमसो मा ज्योतिर्गमयÓ। इन साधारण से लगने वाले शब्दों में अत्यंत गंभीर भाव छिपे है। इसमें भौतिक अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाने की प्रार्थना तो है ही, साथ ही हमें अविद्यान्धकार से छुड़ाकर विद्यारूपी सूर्य को प्राप्त कराने की भावना और प्रार्थना अंतर्निहित है। हमारे पूर्वज वैदिक ऋषियों ने सभी प्रकार की सामाजिक समस्याओं को तीन श्रेणियों में बांटा-ये है अज्ञान, अन्याय और अभाव। चाहे कोई भी देश हो, कैसा भी समाज हो, सब जगह ये समस्याएं रहेंगी ही। इन तीनों समस्याओं में भी अज्ञान की समस्या सबसे बड़ी है। यदि ये कहा जाए कि अन्य दोनों-अन्याय और अभाव की समस्याएं भी अज्ञान के कारण ही जन्म लेती है, तो अनुचित नहीं होगा।

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