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Tuesday, October 4, 2011

आज भी प्रासंगिक हैं गांधी



हरिराम पाण्डेय
1अक्टूबर2011
कल गांधी जयंती है। यह आलेख यहां एक दिन पहले केवल इसलिये लिखा जा रहा है कि हो सकता है कल यानी गांधी जयंती पर आपको इस पर विचार का अवसर ना मिले। यहां आप से एक सवाल है। कभी आपने कच्चे सूत की माला देखी है या कभी आपने तकली पर या चरखे पर किसी को सूत कातते देखा है या कभी आपने सूत काता है? नहीं न! तब आप गांधी को नहीं समझ सकते। सूत कातना और उसकी माला बनाना , काफी लम्बा सिलसिला होता है उसमें। सूत बार-बार टूटता है और माला कितनी मोटी हो गयी उसे देखने के लिये रह रहकर उसको छूते रहने का जो अनुभव है उस तरह का मांसल अनुभव अब लगभग समाप्त होता चला गया है , खास कर के हमारी शिक्षा में। आजकल तो मांसलता को शिक्षा से जुदा करने का राष्टï्रीय कुचक्र चल रहा है।
जो लोग आजादी के बाद के एक डेढ़ दशक में पैदा हुए हैं उनके लिये अपने बचपन को याद करने और उसके बाद की दुनिया को टूटने बिखरने के ऊपर यह एक विलाप का समय है क्योंकि उन लोगों के संस्कार उस दशक में जैसे बने, वह आज सब की आंखों के सामने बड़ी आसानी से, बड़ी निर्ममता के साथ टूटे। एकाएक टूटते तो शायद वे लोग एक नए तरह के दौर से गुजरते, उन्हें ज्ञान होता। लेकिन वह धीरे-धीरे टूटा और इसलिए वह हमें लगातार उस टूटन में समाहित करता गया। हमें आदत डाली गयी कि वह सब टूटता चला जाय और हम जीते चले जाएं। और जो बचा है, उसमें भी सब टूटने के हम आदी होते चले जायें। 'भारतÓ 26 जून, 1975 की आधी रात के बाद खंडित हुआ। फिर बहुत सा वह नवम्बर, 1984 के शुरू में टूटा और फिर जो बाकी बचा हुआ था वह 6 दिसम्बर, 1993 को टूटा। अब सचमुच हमारी ही पीढ़ी के लिए जो कि आजादी के बाद के वर्षों में पैदा हुई थी, यह लड़ाई, एक तरह से पूछती है कि गांधी का सपना किसने तोड़ा था? हम सब धीरे-धीरे उस सपने के टूटने के बाद बचे हुए को बर्दाश्त करने और बर्दाश्त करने की आदत डालने के एक तरह से प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। सचमुच यह गलत होगा, यदि इस अवसर पर केवल विलाप किया जाये। गांधी विलाप का नाम नहीं है। हममें से करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्होंने गांधीजी को नहीं देखा। आज यहां जो कुछ भी लिखा जा रहा है मूलत: एक संवाद है उस अनदेखे से । संवाद की विशेषता यह होती है कि वह विपरीत विचार के बिना नहीं हो सकता। आपको अपने से विपरीत सोचने वाले को इसीलिए जीवित रखना पड़ेगा। बल्कि पूरा आदर देकर जीवित रखना होता है जिससे कि आप अपनी बात उसके बहाने से कह सकें। वरना आपकी बात कैसे जन्म लेगी? विपरीत बात का, विपरीत बुद्धि का इसमें आदर है। संवाद का अगर कोई अर्थ है तो मेरी समझ में यही है। संवाद की यह विशेषता है कि वह अपने विपरीत मत का समावेश करने का निरंतर प्रयास करता है। इस सिलसिले में ऐसा लगता है कि हमें गांधी के अपने जीवन को एक लम्बा संवाद देखते हुए समझने का प्रयास करना चाहिए। उसको किसी एक घटना में बांधकर देखना गलत है। गांधी के जीवन का संक्षेप न केवल उन परिस्थितियों में है जिनमें वे सफल सिद्ध हुए, और न ही उनके जीवन का यह संक्षेप, यह संवाद उन घटनाओं में है जिनमें वे निराशामय दौर में घिर गये और असफल हुए, और असफल वह न भारत के विभाजन में हैं और न नमक सत्याग्रह की सफलता में हैं। गांधी के जीवन को संवाद और उदारता से पूरी सजगता के साथ समझना होगा। उसके बाद वह संवाद-संक्षेप जिस दिन हमें छूने की हालत में मिल जायेगा, उस दिन गांधी की उपयोगिता, गांधी की बात करने की जरूरत हमारे सामने और स्पष्ट प्राथमिकता ग्रहण कर लेगी। छोटा सा प्रयास भी हम कर सकते हैं या उसकी शुरुआत करने का दावा कर सकते हैं। जरा गांधीजी के जीवन के विषय पर ध्यान दें। गांधीजी के जीवन में टकराहट के नाटकीय स्वरूप हैं। इनमें से अजीब सी रोशनी निकलती है। ऐसा लगता है कि आप कोई नाटक देख रहे हैं। उसमें अचानक एक परिस्थिति उत्पन्न होती है। वही मंच, कोई साज - सज्जा नहीं है। वह एकाएक मंदिर में तब्दील हो जाता है। कभी मंदिर की जगह पुलिस का थाना बन जाता है। तस्वीर बदल जाती है। गांधीजी के जीवन के ऐसे कई प्रसंग हैं, जिनमें उनकी शिरकत में एक सम्पूर्ण परिदृश्य वैसा नहीं रहा जैसा वह था। गांधीजी अराजक व्यक्तित्व हैं। अगर गांधीजी का कोई इस्तेमाल हमारे जीवन में है, तो यह है कि सत्ता के केन्द्रों की वाणी को चिन्तन के केन्द्रों से अलग रखिए। स्वतंत्रता के गुण को, विचार को, सत्ता के केन्द्र से अलग रखिए। विचार के लिए जगह बनाइए। मेहरबानी करके विचार और सत्ता को साथ-साथ बैठने मत दीजिए, नहीं तो आप विचार को नष्ट कर देंगे। विचार और सत्ता का जब आमना-सामना होता है तो उसमें विचार ही नष्ट हो जाते हैं। सत्ता की नगरी में विचार हिचकिचाहट-सा हो सकता है, अमूर्त ही हो सकता है, कभी स्पष्ट नहीं हो सकता। जो सत्ता के ठीक नीचे रहते हैं उनकी बहुत बड़ी समस्या यह है कि इस अराजक व्यक्तित्व का क्या किया जाये। हमारी कोशिश रहेगी कि स्वतंत्र विचार को सुरक्षित रखा जाय। विचार की यही जगह है। लेकिन हम एकदम अक्षम स्थिति में हैं। इसलिए यह विलाप का क्षण नहीं है, पहचानने का क्षण है। एक अराजक व्यक्तित्व का क्या करें? ऐसे व्यक्तित्व का ऐसी नगरी में क्या करें?

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