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Tuesday, October 4, 2011

बदलाव की आकांक्षा के बावजूद भ्रम की स्थिति

हरिराम पाण्डेय
26सितम्बर 2011
आज देश एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मोड़ पर है। देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा परिवर्तन की आकांक्षा से भरा हुआ है। लेकिन देश में गंभीर भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी है। ऐसी स्थिति 1930 के भारत में देखी गयी थी जब एक तरफ भारत का जनसमुदाय आजादी के लिये कुछ भी कर गुजरने को तैयार था तो दूसरी तरफ आर्थिक अस्थायित्व से देश को मुकाबला करना पड़ रहा था। लेकिन उस काल में नेता के रूप में गांधी थे आज वह सम्बल अनुपस्थित है। आज नेतृत्व का संकट है। अण्णा हजारे ने हालांकि बहुत बड़ा काम किया है। उन्होंने दुनिया की सबसे दुर्गम और अभेद्य सरकारों में से एक में सकारात्मक रूप से सेंध लगाने में कामयाबी पायी। उन्होंने युवाओं के दिल में बदलाव की आकांक्षा की एक चिंगारी पैदा की। उन्होंने भारत की जनता में मूल्यों की पुन: प्रतिष्ठा करने की प्रक्रिया भी प्रारंभ की, जिसकी सख्त जरूरत थी। हां, हममें से अधिकांश अब भी भ्रष्ट हैं, लेकिन हममें कुछ ऐसे भी हैं, जो भलाई की राह पर चलना चाहते हैं। इस कारण से हमारे भीतर भलाई की चाह मजबूत हुई है। यकीनन, कोई भी बदलाव रातोंरात नहीं होता, लेकिन समय के साथ हम निश्चित ही बेहतर व्यक्ति और बेहतर समाज बन सकते हैं। हालांकि हमें इन उपलब्धियों की कीमत चुकानी पड़ी है। आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जो इस आदर्शवाद से कोसों दूर है। दुखद तथ्य है कि हमारे बौद्धिक कुलीनों ने इस स्थिति से उबरने के लिये राह नहीं बतायी है कि हम एक व्यापक सर्वसम्मति का निर्माण कर पाते। जब कि 30 के दशक में यह स्थिति नहीं थी। अब ऐसा भी प्रतीत हो रहा है कि स्थिति को ठीक से समझने का प्रयास नहीं किया जा रहा। क्योंकि लोकतंत्र में सरकार नाम की संस्था एक बुनियादी धारणा के आधार पर संचालित होती है और वह है जनता का विश्वास। यदि जनता का भरोसा डिग जाए तो ऐसी कोई संस्था संचालित नहीं हो सकती। यहां एक छोटा-सा उदाहरण पेश है। हम अपने जेब में कागज के जो नोट लिए घूमते हैं, उनका मूल्य केवल तभी तक है, जब तक हम उन्हें मूल्यवान मानते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब किसी देश की जनता ने अपनी मुद्रा में भरोसा गंवा दिया। भारत के राजनेता और खासतौर पर भारत की सरकार भरोसे के इसी संकट से जूझ रही है। जनता अब सरकार पर भरोसा नहीं करती। सरकार के बयानों से हालात और बदतर हो गये हैं। हमारे राजनेताओं ने अपने रवैये की यह कीमत चुकायी है कि अब लोग उन पर भरोसा नहीं करते। जनता का विश्वास जीते बिना नियमों का हवाला देने से कुछ नहीं होगा। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि एक बेहतर भारत के निर्माण के लिए हमें बेहतर नेताओं की जरूरत है और बेहतर नेताओं की खोज हम सभी को मिल-जुलकर ही करनी पड़ेगी।

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