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Friday, January 6, 2012

इंदिरा भवन के मसले पर कांग्रेस- ममता भिड़े

टूट सकता है केंद्र में यूपीए गठबंधन
- हरिराम पाण्डेय
कोलकाता के इंदिरा भवन के नाम बदलने को लेकर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में बढ़ते तनाव का असर अब दिल्ली में दिखने लगा है। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कांग्रेस को नीचा दिखाने और राज्य में उसे अप्रासंगिक बना देने की कोशिश तो तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी आरंभ से ही कर रहीं हैं। पीछे की घटनाओं को अगर नजर अंदाज कर दें तब चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर हुज्जत से बात बढ़ती हुई इंदिरा भवन तक आ पहुंची है और अब दोनों पाटियां सड़कों पर मुियां ताने दिखायी पड़ रहीं हैं। हालांकि इंदिरा भवन का मसला कांग्रेसी पाखंड से ज्यादा कुछ नहीं कहा जायेगा लेकिन जिस ढंग से ममता बनर्जी ने इसे उठाया है और जिस कवि के नाम पर नया नाम करण करना चाह रहीं है वह उनकी राजनीति महत्वाकांक्षा के अलावा कुछ नहीं है। हालांकि ममता जी अब भवन का नाम नहीं बदलने पर राजी हो गयीं हैं लेकिन उसमें नजरुल स्मृत्ति संग्रहालय की बात पर वह अड़ी हुई हंैं। यद्यपि इंदिरा जी के नेमप्लेट के भीतर नजरुल का संग्रहालय राज्य में एक खास किस्म की असंगति पैदा करेगा।
इंदिरा भवन 1972 के दिसम्बर में कांग्रेस अधिवेशन के लिये बना था। वहां इंदिरा जी ने प्रवास किया था। लेकिन इसके बाद कांग्रेस की सरकार रही नहीं और माकपा के मुख्यमंत्री ज्योति बसु का वह आवास बना। कांग्रेस का वह अधिवेशन पाकिस्तान पर विजय और बंग्लादेश के बनने के भावोन्माद के साये में आयोजित हुआ था और 40 साल के बाद उस भवन को लेकर बंगाल में सियासत गरमा रही है। मंगलवार को राइटर्स बिल्डिंग (बंगाल के सचिवालय) के इतिहास में सबसे लम्बे प्रेस कांफ्रेंस में ममता बनर्जी ने कांग्रेस पर सीधा आरोप लगाया कि 'उसने तृणमूल को राजनीतिक मात देने के लिये वामपंथियों से हाथ मिला लिये हैं। Ó ममता बनर्जी ने साफ कहा कि 'उन्होंने कभी भी एक लफ्ज मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी के बारे में कुछ भी गलत नहीं कहा पर कांग्रेस के लोग सड़कों पर खड़े होकर मुझे अपशब्द कह रहे हैं।Ó ममता बनर्जी का गुस्सा चरम पर था।
दूसरी तरफ इस अवसर का राजनीतिक दोहन करने के लिये ममता बनर्जी के प्रेस कांफ्रेंस के तुरत बाद श्ीपीएम नेता सूर्य कांत मिश्र ने उनकी आलोचना करते हुये कहा कि 'दस वर्षों तक ज्योति बसु ने उस भवन में निवास किया पर उन्होंने नाम नहीं बदले। इस कदम से तो न इंदिरा जी को प्रतिष्ठïा मिलेगी और ना नजरूल को। जहां तक कांग्रेस और माकपा के हाथ मिलाने का सवाल है ममता जी पार्टी के कार्य कर्ता इसी बहाने से दोनों दलों के लोगों पर हमले कर रहे हैं।Ó
साथ ही नजरुल जन्मोत्सव कमिटि ने भी इसका विरोध किया है और कहा है कि सरकार का यह कदम इंदिरा गांधी और नजरुल इस्लाम दोनों का अपमान है। नजरुल जन्मोत्सव कमिटि की ओर से नजरुल अकादमी की अध्यक्ष प्रो. मिरातुल नाहर ने कहा कि 'एक आदमी का नाम हटाकर दूसरे का देने का अर्थ ह दूसरे को भी अपमानित करना।Ó
हालांकि यह सच है कि ममता बनर्जी विरोधों और अवसरों की परवाह नहीं करती हैं पर मनोवैज्ञानिक तौर पर वे बेहद महत्वोन्मादी हैं और अब वे शायद ही इस जगह पीछे हटें।
ऐसा होना कोई नयी बात नहीं है। कृषि या अभावग्रस्त पृष्ठभूमि वाली महिला राजनीतिज्ञों- नेताओं के साथ अक्सर ऐसा होता है। मयावती और जय ललिता का उदारण सामने है। विख्यात समाज वैज्ञानिक हैगन के अनुसार 'महिलाओं में वर्ग परिवर्तन, खास कर कृषि या उसी तरह के वर्ग से बाहर निकल कर उच्च वर्ग की और दौडऩे के साथ ही उनके व्यक्तित्व में भी बदलाव आ जाते हैं और वे बदलाव अधिकांश सृजनहीन और नकारात्मक होते है।Ó जहां तक ममता बनर्जी का सवाल है उन्होंने लोकतांत्रिक अपेक्षाओं को मानवीय स्वर दिया है लेकिन उनकी तानाशाह प्रवृत्ति इस पर असर डाल सकती है। वे इससे वाकिफ भी हैं और जब भी तृणमूल कांग्रेस में लोकतांत्रिक कायदों की कमी के बारे में पूछा जाता है तो वे तुरत बिगड़ï जाती हैं।
महज 19 सांसदों के साथ उन्होंने 206 सांसदों वाली मजबूत कांग्रेस को इस साल चार बार पटखनी दी है और हर बार अत्यंत अहम मामले में। उन्होंने बांग्लादेश में तीस्ता नदी जल बंटवारे पर बातचीत का हिस्सा बनने से इंकार कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ठोकर लगाई। इसके बाद खुदरा कारोबार लेकर भी अड़ी रहीं और सरकार को वह प्रस्ताव मुल्तवी करना पड़ा। तेल की कीमतों को लेकर और फिर लोकपाल के मसले पर। हर बार कांग्रेस के अहं को उन्होंने ठोकर मारी है। वे कांग्रेस को बखूबी समझती हैं। वह वही विधि अपना रहीं हैं जो कांग्रेस पार्टी अपने गठबंधन के सहयोगियों के लिये अपनाती है। अगर फ्रैंक सिनात्रा की मानें तो कह सकते हैं कि 'बात मानो नहीं तो रास्ता लोÓ की तकनीक कांग्रेस अपनाती है और अब ममता जी अपना रहीं हैं। ममता कांग्रेस से दबेंगी नहीं, क्यों कि इसके लिये उनके पास कोई कारण नहीं हैं, क्योंकि उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने के आसार नहीं के बराबर हैं। उन्हें किसी पोल के खुल जाने का डर नहीं, क्योंकि उनके पास सीबीआई से छुपाने के लिए कोई बड़ा घोटाला ही नहीं है। इसलिए वे दिल्ली की ब्लैकमेलिंग को लेकर चिंतित नहीं हैं। वे नहीं जानतीं कि निरीह या दब्बू कैसे हुआ जाए। दिल्ली भी चुप है। इस सारे प्रकरण में जो सबसे महत्वपूर्ण सियासी गुत्थी है वह है कांग्रेस की शीर्ष नेता सोनिया गांधी की चुप्पी। ममता बनर्जी का हर प्रहार केवल कांग्रेस के अहं को ठोकर नहीं मारता बल्कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को कमजोर भी करता है। कांग्रेस पर यह प्रहार एक तरह से राहुल गांधी के लिये मदगार भी है। यही कारण है कि कांग्रेस ममता बनर्जी के प्रहार से बचने का कोई प्रयास नहीं कर रही बल्कि वह उनके 19 सांसदों को अप्रासंगिक बना देना चाहती है।
अभी जो स्थिति है उसमें ममता बनर्जी के लगातार प्रहार दिखायी पड़ रहे हैं तो कांग्रेसी भी पीछे नहीं हैं। कांग्रेस ने किनारे से हमला बोलना शुरू कर दिया है। युवा कांग्रेस की नेता मौसम नूर ने इंदिरा भवन मामले में पश्चिम बंगाल सरकार के फैसले की कड़ी आलोचना की है। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस के लगातार विरोध से आजिज आ गई लगती है। यही वजह है कि पार्टी के भीतर तृणमूल कांग्रेस के बिना यूपीए गठबंधन को चलाने के लिए विकल्पों पर मंथन शुरू हो गया है। कांग्रेस ऐसे सहयोगी की तलाश कर रही है, जो हर तरह के हालात में उसके साथ रहे। पार्टी से जुड़े सूत्रों के मुताबिक उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद 22 सांसदों वाली समाजवादी पार्टी को कांग्रेस तृणमूल की जगह संभावित साथी के तौर पर देख रही है। कांग्रेस के कुछ रणनीतिकारों ने सलाह दी है कि तृणमूल को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद कांग्रेस-सपा गठबंधन तैयार कर वामपंथी दलों के साथ पुराने रिश्ते में जान फूंककर 2014 के लोकसभा चुनाव में जाना बेहतर विकल्प होगा। कांग्रेस की हालत खासकर प्रधानमंत्री के टूटते अहं एवं विखंडित होती मर्यादाओं को देख कर लगता है कि ममता बनर्जी के सहयोग से सरकार बचाने से ज्यादा बड़ा शाप कुछ नहीं हो सकता।
तृणमूल कांग्रेस के नेता तो अब खुल्लम खल्ला कह रहे हैं कि उन्हें बंगाल में सरकार चलाने के लिये किसी की जरूरत नहीं है और कांग्रेस हाई कमान ने अपने कार्यकर्ताओं को ममता पर हमले करने की खुली छूट दे रखी है। लेकिन इसमें बंगाल के कांग्रेसियों का कुछ नहीं बनने वाला। वे सिर्फ दिल्ली के जहर को यहां उगल रहे हैं। इससे दोनों के रिश्ते नष्टï हो सकते हैं लेकिन बंगाल के कांग्रेसी नेता घाटे में रहेंगे। यह सियासी दूरंदेशी नहीं कही जा सकती है। कांग्रेस को अभी कुछ निर्णायक करनेे में लगभग तीन महीने का समय लग सकता है। उत्तर प्रदेश और अन्य 4 राज्यों में चुनाव के बाद ही कुछ हो पाने की संभावना है। उत्तर प्रदेश में जो सबसे आदर्श स्थिति होगी वह है सपा का सबसे बड़ी पार्टी के रूप में जीत कर आना लेकिन उस स्थिति में उसे सरकार चलाने के लिये कांग्रेसी सांसदों की मदद लेनी होगी। अगर ऐसा होता है तो दिल्ली ममता जी से पल्लाझाड़ सकती है और सपा को साथ ले सकती है। अगर सपा साथ आ जाती है तो 2014 तक उसके सांसद कांग्रेस के बंधुआ रहेंगे।
यह तब ही हो सकता है जब सपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरे। यदि ऐसा नहीं होता(जिसकी उम्मीद बहुत कम है) तब ममता से गठबंधन उसी समय तक रहेगा जबतक कांग्रेस के लिये मनमोहन सिंह अपरिहार्य हैं। दिल्ली के दरबार में सरगोशियां होने लगीं हैं और सियासत में कानाफूसी को शोर में बदलते देर नहीं लगती। सोशल मीडिया के इस दौर में यह शोर आनन फानन में व्यापक हो जाता है और उसके बाद जनमत का रूप ले लेता र्है। - लेखक वरिष्ठï पत्रकार हैं

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