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Saturday, May 5, 2012

तरक्की की राह में खुद सरकार रोड़ा

हरिराम पाण्डेय
एक कहावत है न कि व्यापार में लक्ष्मी का वास होता है। इसका मतलब अगर आर्थिक तरक्की करनी हो तो व्यापार को अपनाएं। पर यहां की एक टे्रजेडी है कि हमारे यहां सर्विस सेक्टर फल- फूल रहा है और व्यापार पिट रहा है। बाजार डूबता है। अबसे कोई दो दशक से ज्यादा वक्त हुआ सरकार ने व्यापार को बढ़ावा देने के लिये लाइसेंस राज खत्म किया, आर्थिक उदारीकरण शुरू किया गया पर व्यापार में इजाफा नहीं हुआ। अभी हाल में एक रपट आयी कि 'भारत के बिजनेस में सबसे बड़ी रुकावट यहां की सरकार है।Ó इस बयान के दूसरे हिस्से में पॉलिटिक्स को इकॉनमी पर भारी पड़ता बताया गया है।
पिछले हफ्ते जिस वक्त 'इंटरनेशनल रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्सÓ भारत की रेटिंग घटाने की धमकी दे रही थी, यह बयान दूसरी एजेंसी 'मूडीजÓ की तरफ से आया। रेटिंग घटाया जाना या इनकी धमकी कितना मायने रखती है। इससे प्रणव मुखर्जी का हिसाब ही खराब नहीं होता, हमारे-आपके घर-दफ्तर में मुसीबतें पैदा होने लगती हैं। लिहाजा इनकी बात हमें सुननी तो होगी ही। मूडीज का बयान हम अपनी बदकिस्मती पर ही अनसुना कर सकते हैं, क्योंकि हमारी पॉलिटिक्स और गवर्नेंस सचमुच हमें पीछे धकेल रही है। हम अपना रास्ता खुद रोकने की एक ऐसी मिसाल पेश करने जा रहे हैं, जिस पर दुनिया भविष्य में तरस खाने लगेगी। इस ट्रेजेडी को समझिए। भारत इस वक्त उम्मीदों, जरूरतों और काबिलियत की एक उफनती हुई नदी है। इस नदी को अगर इसका रास्ता नहीं मिले तो या तो वह अनगिनत धाराओं में बंटती हुई बेलगाम हो जाएगी या फिर एक ठहरे हुए तालाब में खत्म हो जाएगी। कैसे माहौल को बेहतर बनाने के बजाय देश के बेहतरीन दिमाग नई उलझनें ईजाद करने में जुटे हैं। सरकार जनता की तरफ से देश को चलाने की अथॉरिटी रखती है और उसे कोई भी कानून बनाने का हक है, लेकिन कानूनों के भी अपने कायदे होते हैं, उनका अपना दर्शन होता है। उनके भी कुछ स्टैंडर्ड हैं, जो इंसानी तरक्की के उसूलों पर टिके हैं। लिहाजा कानून भी अच्छे और बुरे होते हैं, लेकिन सबसे बुरा कानून वह है, जो आज की खामियों को दूर करने के नाम पर पिछली तारीख से लागू कर दिया जाता है। ऐसे फितूरी बदलावों के मुल्क में कौन कदम रखने की हिम्मत करेगा?
सरकार को पैसा चाहिए। बहुत-सा पैसा, क्योंकि देश पर ढेर सारा कर्ज लदा है, क्योंकि जितना खर्च उसे करना पड़ता है, उतनी टैक्स से कमाई नहीं है। मौद्रिक घाटे का हाल बहुत बुरा है। सरकारी फाइनेंस की इस बदहाली ने ही रेटिंग एजेंसियों का पारा गर्म कर रखा है। सरकार जब बिजनेस से ज्यादा वसूलेगी तो ही उसका हिसाब ठीक होगा और देश की साख सुधरेगी। लेकिन, यह हिसाब खराब हुआ कैसे? क्योंकि सरकार को खर्च करने की हड़बड़ी मची हुई है। इसलिए सोशल सेक्टर में ऐसी-ऐसी स्कीमें शुरू की जा रही हैं, जिन्हें पूरी दुनिया में लाजवाब बताया जाता है। इन पर लाखों करोड़ रुपए का खर्च आना है, जबकि इससे पहले ही जो हजारों करोड़ गरीबों की भलाई के नाम पर लुटाए जा रहे हैं, उनका ही इंतजाम करने में सरकारों की हालत पतली होती रही है। ये नए लाखों करोड़ रुपए कहां से आएंगे, कोई नहीं जानता। अगर जीडीपी की दर इतनी-इतनी रहेगी और इतना-इतना रेवेन्यू आएगा, तो सब इंतजाम हो जाएगा। लेकिन पहले ही जीडीपी और रेवेन्यू के सरकारी अंदाजे इस कदर नाकामयाब होते आए हैं कि किसी को उन पर यकीन नहीं है। हैरतअंगेज है यह कि फटे जेब के साथ कोई कैसे इतने बड़े सपने देखने की जुर्रत कर सकता है। और वह भी तब, जब कोई गारंटी नहीं कि सरकारी खजाने से निकला पैसा पहुंचेगा कहां? सरकार खुद मानती है कि गरीबों को एक रुपए में से 20 पैसे मिलते है। बाकी 80 पैसे कहां लग जाते हैं यह सब जानते हैं। भारत का सोशल सेक्टर दरअसल दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला है। एक दूसरे तरीके से भी कंगालों की यह लूट भारत का बंटाधार कर रही है। मनरेगा और पीडीएस ने गांवों में एक घटिया दर्जे की इकॉनमी तैयार कर दी है, जिसने कार्यक्षमता का बंटाधार कर दिया है।
दलालों, घूसखोरों और निठल्लों का एक संसार सरकार की शह पर पनप रहा है। भारत बेमिसाल तरक्की के रास्ते पर खड़ा है, इसे सब मानते हैं। सब इसके आगे बढऩे की प्रतीक्षा में हैं और यह वहीं खड़ा ऊंघ रहा है। जब तक सरकार अपने सोच नहीं सुधारेगी तब तक तरक्की के सपने ही देखे जा सकते हैं और वह भी दिवास्वप्न।

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