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Thursday, August 23, 2012

'कोयलेÓ की कालिख में कितना कालापन?



22.8
हरिराम पाण्डेय
पिछले दिनों कोयला घोटाला पर कैग की रिपोर्ट पर बवाल मचा हुआ है। वैसे अगर अर्थ शास्त्र के मनोविज्ञान को देखेंगे तो ऐसा होना ही था क्योंकि सन 197& में कोयला खदानों का राष्टï्रीयकरण खुद बुरी नीतियों के फलस्वरूप हुआ और गलत नीतियों के नतीजे भी गलत ही होते हैं। लेकिन उस समय इस नीति को लागू करते समय सरकार या अफसरों ने ऐसा नहीं सोचा था। तब कोयला क्षेत्र पूंजी के अभाव से ग्रस्त था और उसे आधुनिकीकरण की दरकार थी। श्रमिकों की स्थिति दयनीय थीं और अवैज्ञानिक खनन नीतियां अमल में लायी जा रही थीं। पूर्व कोयला सचिव वीएन कौल का मानना है कि कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण भारी भूल थी क्योंकि शुरू से ही राष्ट्रीयकृत खदानें देश की कोयला मांगों को पूरी कर पाने में नाकाम साबित हो रही हैं। वास्तविक खामी कोयला खदान राष्ट्रीयकरण अधिनियम की नीतियों में है , जिनकी उपयोगिता खत्म हो चुकी है लेकिन राजनीतिक विरोध के चलते राष्ट्रीयकरण की नीति की समीक्षा करने के तमाम प्रयास विफल रहे। कोयला खदानों का संपूर्ण राष्ट्रीयकरण भी लंबे समय तक नहीं टिका। वर्ष 1976 में इस्पात, ऊर्जा और सीमेंट जैसे बुनियादी ढांचे के महत्वपूर्ण क्षेत्रों को कोयले की आपूर्ति के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का हस्तक्षेप कम करने और उत्पादकता बढ़ाने वाली नीतियां प्रस्तावित की गयीं। इस्पात के उत्पादन में संलग्न निजी कंपनियों को बंधक खदानों का स्वामित्व दे दिया गया और दूरदराज के इलाकों में निजी क्षेत्र को सब-लीजिंग की अनुमति दी गयी। 199& में सरकार ने कोयला क्षेत्र को पावर जेनरेशन और 1996 में सीमेंट उत्पादन के लिए खोल दिया। विवेकाधीन आवंटनों की नीति में अनेक बार संशोधन किया गया। वर्ष 2004 तक कोयला मंत्रालय की समझ में आ गया कि केंद्र और राÓय के अधिकारियों की स्क्रीनिंग कमेटी की अनुशंसाओं के आधार पर विवेकाधीन आवंटन नीति में पारदर्शिता का अभाव था। कोयला मंत्रालय ने कानून मंत्रालय से परामर्श लिया कि क्या कानून में बदलाव लाये बिना विवेकाधीन आवंटन के स्थान पर प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की प्रक्रिया अपनायी जा सकती है? पहले तो कानून मंत्रालय ने कहा कि कार्यपालिका के आदेश से यह किया जा सकता है, लेकिन बाद में वह इसे लेकर बहुत निश्चित नहीं रह गया। कुछ राÓयों ने भी नीलामी का विरोध किया।
सन 2004 के बाद से ही प्रधानमंत्री का यह सोच रहा है कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी ही उचित तरीका है और उन्होंने कोयला मंत्रालय को तुरंत कार्रवाई के निर्देश देते हुए कैबिनेट में प्रस्ताव भिजवाने को कहा। दु:ख की बात है कि राष्ट्रीयकरण की अनुपयुक्त नीति को समाप्त कर कोयला क्षेत्र में आमूलचूल सुधार लाने की बात किसी ने नहीं सोची और कैग भी इसे रेखांकित कर पाने में नाकाम रहा। इसी पृष्ठभूमि में कैग की ऑडिट रिपोर्ट सामने आयी। मीडिया ने लोगों को बताया कि वर्ष 2005 से 2009 के बीच निजी कंपनियों को कोयला खदानों के मनमाने आवंटन के कारण सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ। यह भी कहा गया कि सरकार ने प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी के लिए 28 जून 2008 की तारीख तय कर दी थी, लेकिन इसके बावजूद वर्ष 2009 तक विवेकाधीन आवंटन जारी रहा और इस तरह निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाया गया। रिपोर्ट में कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी उजागर हुए हैं, लेकिन 57 बंधक खदानों के लिए 19 बड़े व्यावसायिक घरानों को लाभ पहुंचाए जाने के आंकड़े ही सुर्खियों में रहे। हालांकि मौजूदा हालात को देखते हुए सरकार और विपक्ष में राजनीतिक विभाजन अप्रत्याशित नहीं है। भाजपा ने प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग की है, लेकिन वह भूल गयी कि जब वह सत्ता में थी, तब उसने भी विवेकाधीन आवंटन की प्रणाली अपनायी थी। एनडीए और यूपीए दोनों की सरकारों ने कोयला क्षेत्र में विवेकाधीन आवंटन की पुरानी प्रणाली का समर्थन किया है। मनमोहन सिंह तो वास्तव में पहले ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की प्रणाली अमल में लाने का सुझाव दिया था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इस मौके का फायदा उठाकर पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल अपनाने के लिए सरकार की आलोचना कर रही है और वही पुराना बाजार विरोधी राग अलाप रही है। वह यह नहीं समझ पा रही है कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी प्रक्रिया बुनियादी माक्र्सवादी आग्रहों के अनुरूप नहीं होगी। कैग की रिपोर्ट पर मीडिया का रवैया भी सनसनी फैलाने वाला ही रहा है। कैग की रिपोटर््स बहुत संस्थागत प्रयासों के बाद तैयार होती है और उनका ध्यान से अध्ययन करने की जरूरत होती है। कैग की अनुशंसाओं पर कोई धारणा बनाने से पहले पी ए सी में उनकी ब्योरेवार पड़ताल की जाती है। हम अभी यह नहीं जानते कि निजी कंपनियों को कथित रूप से लाभ पहुंचाए जाने के आरोपों की हकीकत क्या है।

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