CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Monday, December 1, 2014

सरल नहीं है सुधार


29.11.2014
इन दिनों आर्थिक सुधारों की दूसरी पीढ़ी की चर्चा चल रही है। इस पर आगे बातें करने से बेहतर है कि हम इसके बारे में थोड़ी जानकारी दे दें ताकि समझने में ज्यादा ऊर्जा न लगे। सबसे खास बात है कि हमें यह नहीं मालूम कि हमें करना क्या है। लम्बी अवधि के बाद हमारे देश को राजनीतिक स्थायित्व मिला तो क्या हमारा पहला उद्देश्य होगा कि उस स्थायित्व को बनाये रखें। दूसरी समस्या है महंगाई। अभी हम इससे लगातार जूझ रहे हैं और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया भी  इसी कश्मकश में लगा है। तीसरी समस्या है तेजी से बदल रहीं अंतरराष्टï्रीय परिस्थितियां। बात यहीं खत्म नहीं हो जाती है। इससे ढेर सारी स्थितियां परिस्थितियां जुड़ी हैं और हम सिर्फ ऊपर ही ऊपर तैर रहे हैं बुनियादी सवालों को समझने और उनके उत्तर खोजने की कोशिश ही नहीं की। सोचिये कि भूमि संबंधी अड़चनों के कारण थम रहे निवेश, खनन क्षेत्र और प्राकृतिक सम्पद जैसे क्षेत्रों में लाल फीतों से जकड़े कायदे - कानून। इस बारे में कभी सोचा गया। इससे विकास को कितना अवरोध पहुंचता है। पहली पीढ़ी के सुधारों में भी इस पर निगाह नहीं डाली गयी। बेशक अर्थ व्यवस्था में थोड़ा बहुत विवाद होता है और उसे नहीं मिटाया जा सकता। लेकिन अपने देश में सबसे बुनियादी समस्या है मूल्य नीति। एक देश में एक साथ सरकार नियंत्रित मूल्य नीति है और साथ ही बाजार नियंत्रित नीति भी है। दिलचस्प बात है कि दोनों नीतियां भरोसेमंद नहीं हैं। दूसरी पीढ़ी की चर्चा है लेकिन ये समस्याएं नजरों की ओट हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आस्ट्रेलिया में सही कहा था कि 'किसी तथ्य को छिपा कर सुधार नहीं किया जा सकता है। इससे बात नहीं बनेगी। ... और अगर बात बिगड़ेगी तो कोयला घोटाले की तरह का नतीजा सामने आयेगा।Ó अपने देश में कानूनों में सुधार का नतीजा उसमें कुछ नये छद्मों के लिए जगह बनाने के रूप में सामने आता है। अब जैसे कोयला घोटाले की ही बात करें। इस सम्बंध में मसला यह नहीं है कि किसने इसे जारी किया बल्कि इसका प्रभाव फेडरल प्रणाली पर सवाल उठाता है और दूसरा सवाल है कि इसे जारी कौन कर सकता है। हम इस तथ्य से आंखें मूंदे हैं। यही बात स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भी है। शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के नाम पर शिक्षा का अधिकार दिया गया लेकिन इसमें सबसे बड़ी चूक हो गयी कि निजी और सरकारी शिक्षण संस्थाओं में भेद नहीं किया गया। अब जैसे-जैसे इसे सुधारने की कोशिश होती है वैसे- वैसे इसमें जटिलता बढ़ती जाती है। वही हाल स्वास्थ्य क्षेत्र का भी है। इसमें एक तरफ खुली बाजार व्यवस्था है तो दूसरी तरफ अधकचरे नियम- कायदे। इसमें बढ़ती कीमतों को रोकने की कोई व्यवस्था नहीं है और इससे पूरा देश प्रभावित हो रहा है।  यही नहीं उत्पादनों की मूल्य नीति और बैंकिंग प्रणाली जैसी बातों पर भी ध्यान देना होगा। सुधार के लिए सबसे महत्वपूर्ण है 'चलेगा या चलता हैÓ जैसी प्रवृति के विरुद्ध जंग। सरकार जिस तथ्य को बहुत कम कर के आंक रही है वह है अफसरशाही। एक आई ए एस अधिकारी सरकार को अदालत के पचड़े से बचाने में भारी सहायक होता है लेकिन आज आई एस अधिकारी का अधिकार इतना संकुचित और अचिन्हित हो गया है कि वह अपना काम नहीं कर पाता। दूसरी बात है कि जो भी मामले उभरते हैं पहले तो सरकार उसे समझ नहीं पाती और यह बताती है कि उसने समझा है इसे पूरी तरह और मामले को सुलझाने का प्रयास कर रही है। यही नहीं , सरकार टैक्स हटाने की बात कर रही है लेकिन वित्त मंत्री कठोर वित्तीय अनुशासन की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ, ढांचागत सुधार और ढांचा निर्माण के प्रधानमंत्री के सपनों का क्या होगा।  अगर निवेश नहीं होगा तो विकास कैसे होगा और निवेश होगा कैसे। सुधार के लिए समस्या को जानना जरूरी है। ऐसी व्यवस्था में सुधार बड़ा कठिन है जिसमें आपने कुछ किया तब भी आलोचना और नहीं किया तब भी निंदा। इसलिये सुधारों पर सरकार खुलकर कुछ ईमानदारी से कह नहीं पा रही है। हम संभवत: दूसरी पीढ़ी के सुधारों की बात करें बल्कि पहली पीढ़ी से भी पहले की बात करें तो बेहतर है।

0 comments: