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Saturday, December 6, 2014

हम हंसना भूलते जा रहे हैं

आजादी के 67 वर्षों बाद भी हमारा समाज धर्म, क्षेत्रीयता और जातीयता  के आधार पर बंटा हुआ है। यह एक सामूहिक विफलता है और इसके लिए केवल वे लोग नहीं जिम्मेदार हैं जो धर्म की राजनीति करते हैं बल्कि वे लोग भी हैं जो सेकुलरिटी की आंच पर अपनी रोटी सेंक रहे हैं। ये खोटे सिक्के के दो पहलू हैं। हमारा देश चाहे जितनी तरक्की कर जाये लेकिन वह तरक्की बेमानी होगी। राजनीतिज्ञ बांटने की राजनीति कर रहे हैं और हम उसे लेकर लगातार बंटते जा रहे हैं। यही नहीं इसके लिए हमारा मीडिया भी दोषी है। एक अशालीन बात ममता जी ने एक जनसभा में कह दी और उसे अंग्रेजी मीडिया ने उछालना शुरू कर दिया। उन्होंने यह बात बंगला में कही थी और उसे अंग्रेजी या हिंदी में समझाने की कोशिश की जा रही है। जब अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिनों के लिये प्रधानमंत्री बनने के बाद कोलकाता आये थे तब उन्होंने स्थानीय प्रेस क्लब में 'मीट द प्रेसÓ कार्यक्रम में एक जुमला कहा था, 'घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाये क्या।Ó अंग्रेजी और बंगला में इसका अनुवाद हुआ और पूरे मुहावरे का मजा खराब हो गया। उन्होंने अपनी मूढ़ता पर परदा डालने के लिए बात का बतंगड़ बना दिया। क्या यही निष्पक्षता है मीडिया की। हम तो इतने सैडेस्टिक हो गये हैं कि बात का मजा भी नहीं ले पाते। जहां तक ममता जी की 'बांसÓ वाली बात है वह एक स्थानीय जुमला है। लोकभाषा में इसका इस्तेमाल बहुत गलत नहीं माना जाता है। अलबत्ता इसमें कुलीनता का अभाव है और भदेसपना है। लेकिन यह भाषा का सौंदर्य भी है। गुरुवार को एक बड़े अंग्रेजी अखबार ने इसी बात की हंसी उड़ाने के लिए इसे मुख्य खबर बनायी है। हमारा मीडिया 'ठस्स पनÓ का शिकार होता जा रहा है। इसका कारण है मीडिया का अपना कामकाजी वातावरण। आज राजनीति की खबर बनाने का वातावरण स्वस्थ नहीं है। जाहिर है कि पत्रकार अपनी बोर परिस्थतियों के शिकार हो रहे हैं , हंसी के सहज प्रसंगों पर हंसने की क्षमता तक खोते जा रहे हैं। वे ममता बनर्जी की व्यंग्यात्मक गुगली को नहीं समझ सके।  इस व्यंग्य में जबर्दस्त ताकत है। पत्रकारों के ऐसे ठस्स पन के कई कारण कहे जा सकते हैं। पहला कारण शायद यही है कि पत्रकार जिस माहौल में काम करते हैं उसमें हंसी-मजाक की जगह शायद बची नहीं है। हर आदमी तनाव में रहता है। शायद काम की बदहवासी उसे हंसने का अवकाश नहीं देती। उनके काम करने की जगह में हंसना शायद मना है। उनकी ट्रेनिंग में तो हंसना होता ही नहीं है। उन्हें अपने कामकाज में हंसने की फुर्सत नहीं मिलती है। कामकाज की जगह में अतिरिक्त तनाव है, कंपटीशन से ज्यादा बदलाखोरी, एकदूसरे की टांग खिचाई है। ऐसे में जब हंसने की बात होगी तो हंसा न जा सकेगा। एक मजाक, एक मुहावरा, एक कटाक्ष लंबे-उबाऊ भाषण से कहीं अधिक संवाद पैदा करता है क्योंकि उसका चुटीलापन सबके आनंद का विषय बनता है। कटाक्षभरी आलोचना घोर विपक्षी के लिए भी सहने की जगह बनाती है। सहनशीलता में दीक्षित करती है। इससे संवाद और बढ़ता है। यह अंग्रेजी में उस तरह से संभव नहीं, लेकिन उसे देसी भाषा  में तो होना चाहिए। क्योंकि वह लोकजीवन  से उद्भूत भाषा है। लोकभाषा  का अपना मिजाज है, जहां हंस कर, उपहास कर, तंजकर, व्यंग्य करके अपनी बात कही जाती है। राजनीतिक विमर्श में ऐसी मजेदार भाषा का इस्तेमाल सबसे पहले लोहिया ने शुरू किया था। इसी जमीन पर अटल जी बोला करते थे और इसी जमीन पर लालू ने राजनीति की टीआरपी इतने दिन बटोरी। इसी राजनीतिक देसी स्कूल के शरद यादव हैं और वे जब बोलते हैं तब बेलौस और दोटूक बातें करने के आदी हैं और जरूरत पडऩे पर व्यंग्य कर बात को इस कदर चुटीली बनाकर पेश करते हैं कि आप हंसते-हंसते लोटपोट हो जाएं। 'पाकिस्तान रंडुआ है और हम रंडुए के चाचाÓ जरा इस मुहावरे पर गौर तो करिए कि शरद यादव कह क्या रहे थे? और इसे सुनकर राम गोपाल यादव जैसे सांसद हंसी से लोटपोट क्यों हुए होंगे? इस मार को वही समझ सकता है जो मुहावरे जानता है, देसी भाषा की कीमियागीरी जानता है। इस पदावली को सुनकर स्त्रीत्ववादी आरोप लगा सकते हैं कि शरद का उक्त कथन 'मर्दवादीÓ पदावली है और इसमें 'रिवर्स सेक्सिज्मÓ की बू आती है!  हंसी की भाषा अलग होती है। वह पत्रकारिता में नहीं सिखाई जाती। जिसके पास हंसी की भाषा ही नहीं वह उसे पहचाने कैसे! अंग्रेजी की हंसी हमारी लोकभाषा की हंसी से अलग होती है, इसलिए लोकभाषा में या हिंदी में कहे वाक्य का हास्य अंग्रेजी में समझा भी कैसे जा सकता है। हंसी की कमी का एक कारण शायद हमारे राजनीतिक विमर्श की बदलाखोर भाषा है जो हल्के- फुल्के क्षणों को बनने ही नहीं देती। हमारी भाषा सपाट, कड़वी और कटखनी बन चली है। ममता जी ने जो कहा ऐसे सबाल्टर्न कटाक्ष भरे मुहावरे अनंत अर्थो की तरंगें देर तक पैदा किया करते हैं। अंग्रेजी वाले लाख अनुवाद करके भी इस मुहावरे का मजा नहीं ले सकते। अफसोस यही हाल हमारे हिंदी वाले रिपोर्टरों का भी है। इसी के कारण चारों तरफ बड़ी गलत फहमियां पैदा हो रहीं हैं। समाज को स्वस्थ सूचना देना पत्रकारिता का धर्म है पर शुष्क सूचना देकर समाज को मानसिक तौर पर बीमार करना कलम का धर्म नहीं है। 

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