CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Sunday, August 2, 2015

जमीं खा गयी आसमां कैसे- कैसे

जमीं खा गयी आसमां कैसे- कैसे



ज़िन्दगी क्या है, अनासिर में ज़हूर-ए-तरतीब

मौत क्या है, इन्हीं अजज़ा का परीशां होना

आज (30 जुलाई 2015 ) पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम को सुपुर्द-ए - खाक  कर दिया गया। उनके निधन पर देश भर में शोक की लहर दौड़ गयी। शोक इसलिये नहीं कि वे हमारे राष्ट्रपति थे कभी बल्कि इसलिये कि वे हमारे (राष्ट्र ) नायक हुआ करते थे। सोमवार की सुबह शिलांग जाने की खबर सुनी और शाम को उनके सिधार जाने का समाचार मिला। यकीन नहीं हुआ,

इक बार तो ख़ुद मौत भी घबरा गई होगी

यूं मौत को सीने से लगाता नहीं कोई

लेकिन मौत तो मौत है। इस मौत पर कलाम साहब की एक बात याद आती है कि खुशहाल, संपन्न और शांतिप्रिय समाज के निर्माण के लिए आवश्यकता है युद्ध से मुक्ति की, उस युद्ध से जो हमारे अपने भीतर चलता है और उस युद्ध से भी जिसका सामना हम अपने अस्तित्व से बाहर करते हैं।

न रोटी की क़िल्लत न महलों के सपने,

हुए फिर भी सूदो-ज़ियां कैसे-कैसे।

तमिल कवि अवैयार ने अपनी एक कविता में कहा है कि

‘दुर्लभ है मानव प्राणी के रूप में जन्म लेना, उससे भी दुर्लभ है बिना किसी शारीरिक दोष के जन्म लेना; यदि ऐसा संभव हो भी जाए तो दुर्लभ है ज्ञान और शिक्षा से समृद्ध हो पाना; यदि कोई हासिल भी कर ले ज्ञान और शिक्षा तो दुर्लभ है मानव की सेवा हेतु स्वयं को प्रस्तुत कर पाना और स्वयं की उच्चतर अवस्था में मन लगाना। कोई यदि ऐसा निस्पृह दिव्य जीवन जी लेता है तो ऐसी दिव्य आत्मा के आगमन पर स्वागत में स्वर्ग-द्वार भी खुल जाता है।’ मानव ही ईश्वर की सबसे महत्वपूर्ण रचना है। खुशहाल, संपन्न और शांतिप्रिय समाज के निर्माण के लिए आवश्यकता है युद्ध से मुक्ति की, उस युद्ध से जो हमारे अपने भीतर चलता है और उस युद्ध से भी जिसका सामना हम अपने अस्तित्व से बाहर करते हैं। इन सबसे बढ़कर यह कि इंसान के दिल में औरों को कुछ देने और उन्हें समर्थ बनाने की ख्वाहिश हो। कलाम साहब ने अपनी पुस्तक ‘अदम्य साहस ’ में लिखा है कि ‘दूसरों को कुछ देने की नैतिकता स्वयं से ऐसे सवाल करने से विकसित होती है कि हमारी शिक्षा से दूसरों को किस तरह लाभ मिल सकता है। ऐसे प्रश्न जब उठने लगते हैं तो दिल में परोपकार की भावना बलवती होती है, अर्थात अपने साथ-साथ किस तरह औरों का भला तथा देश का विकास कर सकता हूं? नैतिक विकास को आत्मसात करने हेतु टीम के रूप में काम करने का भाव, निश्छल व्यवहार, सहयोगिता, ठीक ढंग से और ठीक काम करना, कड़ी मेहनत और अपनी निजता से बड़े किसी उद्देश्य जैसे मूल्यों पर जोर देना होता है, साथ ही हमारी अपनी सांस्कृतिक संरचना और मूल्य-पद्धति को दिमाग में रखना होता है। ’

लेकिन कलाम साहब ने जो नहीं लिखा वह है कि उनके खुद के भीतर का जज्बा तथा औरों को कुछ देने और उन्हें समर्थ बनाने की ख्वाहिश। दूसरों को कुछ देने की नैतिकता स्वयं से ऐसे सवाल करने से विकसित होती है कि हमारी शिक्षा से दूसरों को किस तरह लाभ मिल सकता है। उनकी शिक्षा की ही देन थी कि एक बार वे राजकोट में स्वामी नारायण मंदिर गये थे, वहां के प्रधान पुजारी के आमंत्रण पर। उनके साथ राजकोट के बिशप फादर रेवरेंड ग्रेगरी और वाईएस राजन भी थे। सबने भगवान स्वामीनारायण के दर्शन किये और तिलक लगाये। यह घटना हमारे देश में विभिन्न धर्मों के बीच संपर्क की शक्ति को दर्शाती है और एक अनुपम आध्यात्मिक अनुभूति से भर देती है। प्रत्येक धर्म के दो पक्ष होते हैं- धार्मिक उपदेश और आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि। दया और प्रेम से प्रेरित आध्यात्मिक क्रियाकलाप को एक समन्वित लक्ष्य के बतौर परस्पर मिला दिया जाना चाहिए। इस धरती पर हर एक इंसान को सम्मान के साथ जीने और कुछ विशेष करने का हौसला रखने का हक है। यह स्पष्ट है कि इंसान की जिंदगी युद्धों से जुड़ी है। पिछली सदी के दौरान तीन तरह के युद्धों से हमारा सामना हुआ। सन1920 तक एक तरह का युद्ध, 1920 से 1990 तक दूसरी तरह का युद्ध और 1990 के बाद एक और तरह का युद्ध। इनमें से सबसे पहले वाले युद्ध आदमी लड़ते थे। दूसरी तरह का युद्ध मशीनी था। 1990 के बाद तीसरा दौर, भूमंडलीकरण की ओर अभिमुख आर्थिक युद्ध है। प्रौद्योगिकी वर्चस्व के इस दौर में प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण और उसे मुहैया कराने से इनकार आदि के द्वारा वर्चस्वशाली शक्तियां राष्ट्रों का वर्गीकरण ‘विकसित’, ‘विकासशील’ और ‘अविकसित’ के रूप में कर रही हैं। फलत: आज की दुनिया एक अलग तरह के युद्ध का सामना कर रही है । यह युद्ध धार्मिक टकरावों, वैचारिक मतभेदों और आर्थिक-व्यापारिक वर्चस्व का मिलाजुला एक संश्लिष्ट रूप है।

तवारीख़ है कुछ बयाबां नहीं है,

यहाँ दफ़्न हैं कारवां कैसे-कैसे ।

कलाम साहब को श्रद्धांजलि दे रहे लोगों से अपील है कि उनकी वह कविता याद करें जिसमें उन्होंने लिखा है

ओ मानवजाति,

तुम देते रहो, देते रहो;

जब तक कि

मानव-मात्र के सुख-दु:ख के साथ

एकाकार न हो जाओ।

तुम्हारे अंदर उत्पन्न होगा,

परम आनंद

कलाम का जाना एक इतिहास का जमीन में दफ्न हो जाना है। एक आसमान को जमीन का निगल जाना है।

ज़माने ने मारे जवां कैसे-कैसे ।

ज़मीं खा गई आसमां कैसे-कैसे ।।'

लेकिन तब भी हमारी उम्मीदें कायम हैं कि उन्होंने जो सिखाया वह सीख हमें राह दिखायेगी जरूर। बस अंत में यही कहेंगे

आज भी शायद कोई फूलों का तोहफा भेज दे,

तितलियां मंडरा रहीं हैं कांच के गुलदान पर ।

0 comments: