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Wednesday, October 28, 2015

स्थायी समाधान खोजने की जरूरत



27 अक्टूबर2015

देश में हाल की तीन घटनाओं को अगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इनका यूनिवर्सल असर दिखायी पड़ेगा। पहली घटना दादरी कांड की है, दूसरी लेखक- समाज सुधारक की हत्या के विरोध में देश के लेखकों द्वारा अकादमी अवार्ड का लौटाया जाना और फिर पंजाब में पवित्र ग्रंथ के अपमान को लेकर फसाद। विख्यात पत्रिका टाइम्स की मानें तो लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाये जाने का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गहरा प्रभाव पड़ा है और भारतीय लोकतंत्र की साख को आघात का खतरा दिखायी पड़ने लगा है। पीएमओ के स्तर से यदि साहित्य अकादमी पुरूस्कार धनराशि समेत लौटने वाले उर्दू के मशहूर शायर मुनव्वर राणा को बातचीत के लिए बुलाया जाता है तो इसके यही संकेत हैं कि पीएम खुद अंतरराष्ट्रीय दबाव महसूस कर रहे हैं। पीएम के इस कदम से जहां पूरी दुनिया में भारत के खुले लोकतंत्र होने की पुष्टि होगी वहीं संघ से जुड़े संगठनों को भी अपनी इस तरह की विघटनकारी नीति पर चलने से बचने को बाध्य होना पड़ सकता है। दादरी कांड और दक्षिण भारत में लगातार संघ की मानसिकता का विरोध करने वाले भाजपा नेता और अन्य संगठनों के लोगों द्वारा जिस तरह से लगातार लेखकों, साहित्यकारों को अपने निशाने पर ले लिया गया है उसके बाद से मोदी सरकार के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पीएम के चुप रहने का मुद्दा भी उठने लगा है। सरकार में आने के बाद से ही जिस तरह से मोदी ने खुद केवल एकतरफ़ा संपर्क करने के मार्ग पर चलना शुरू किया है उससे भी उनकी लोकतंत्र में आस्था और देश के सामने लगातार समस्याएं खड़ी करने वाले विवादों पर अपने निर्देश देने की प्रतिबद्धता भी कठघरे में दिखाई देने लगती है। इस परिस्थिति में मोदी सरकार की लगातार कट्टरपंथी तत्वों के कारनामों पर चुप रहने या उन्हें राज्यों का मामला बताने से भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस बात का भरोसा नहीं होता है कि सरकार वास्तव में इन मुद्दों पर गंभीर भी है? मोदी सरकार को अब यह दबाव कुछ इतना महसूस होने लगा है कि वह मीडिया के ज़रिये यह सन्देश देना चाहती है कि उसे भी इन कट्टरपंथियों की बातें रास नहीं आ रही हैं। बिहार चुनावों के मद्देनजर जिस तरह से गोहत्या मामले को सुनियोजित तरीके से आगे बढ़ाने और उसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश शुरू की गयी थी वह पूरी तरफ से फ्लॉप होने के बाद सरकार को यह समझ में आया कि इस तरह के मुद्दे के अंतरराष्ट्रीय दुष्परिणाम अधिक होते हैं। आज जब अंतरराष्ट्रीय मंचों से भारत सरकार से ये सवाल पूछे जाने लगे हैं तो भाजपा को समझ में आने लगा है कि इस तरह इन तत्वों को खुलेआम छोड़ना मोदी का हर कथित सफल विदेश दौरे के परिणामों को शून्य की तरफ ही ले जाने का काम करेगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि स्थानीय कारणों के चलते किसी भी सामान्य सी घटना के भारत की संभावनाओं पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को समझते हुए अब मोदी सरकार भी उस डैमेज कंट्रोल में लग चुकी है जिससे उसके देशवासियों को दिखाए जाने वाले बड़े- बड़े सपनों के टूटने के संभावित खतरों पर चर्चा करना भी शामिल है। केंद्र सरकार और भाजपा जिस तरह से अभी तक इस तरह की किसी भी साम्प्रदायिक उन्माद की घटनाओं के चलते उस पर चुप रह जाने की नीति अपनाया करती थीं अब सरकार में होने के कारण उनके लिए इस रास्ते पर चलना मुश्किल हो गया है और उनकी कथनी व करनी का अंतर भी महसूस होने पर ही विदेशों से ही मोदी सरकार ने एक नीति के तहत ही बयानबाज़ी शुरू कर दी है। इसी क्रम में कोलंबिया यूनिवर्सिटी के एक व्याख्यान के बाद पत्रकारों के सम्मेलन में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दादरी जैसी घटनाओं को देश की छवि बिगाड़ने वाला बताया है। जिस तरह से भाजपा और खुद मोदी बेहद दबाव महसूस कर रहे हैं अब उन्हें देश चलाने के लिए देश के ताने बाने के बने रहने की आवश्यकता का अहसास भी हो रहा होगा क्योंकि अभी तक इस तरह के मामलों पर केवल केंद्र सरकार को ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जवाब देना पड़ता है और शायद पहली बार यह स्थिति सामने आई है जिसमें भाजपा और मोदी को अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो रहा है। यह देश के लिए बहुत अच्छा है कि कम से कम इस घटना के बाद खुद देश चला रहे नेताओं और पीएम को इस बात की आंच महसूस होने लगी है। भाजपा का जन्म ही संघ की राजनीतिक शाखा के रूप में ही हुआ है तो वह और उसके नेता हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र के उस सपने के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते हैं जिसके लिए संघ ने काम करना शुरू किया था और जो आज भी संघ का प्रमुख एजेंडा हुआ करता है। देश के सामाजिक ताने- बाने के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ करने के साथ ही देश की प्रगति के सपने को उतनी तेजी से पूरा नहीं किया जा सकता है जिसकी आज देश में क्षमता है और जिस स्तर तक पीएम मोदी उसे पहुंचाना चाहते हैं। भाजपा की तरफ से जिस तरह की कुछ सुगबुगाहट शुरू हुई है तो उसे क्या स्थायी माना जाये या फिर उसे भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय के द्वारा पड़ने वाले संभावित दबाव में मोदी सरकार की एक कोशिश ही मानी जाये? भारत के बहुलतावादी समाज में राजनेताओं के अनावश्यक दखल के चलते जिस तरह से रोज नयी समस्याएं उत्पन्न होती हैं आज उनका स्थायी समाधान खोजने की जरूरत है, वर्ना आने वाला कल बड़ा दुखदायी हो सकता है।


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