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Wednesday, October 28, 2015

‘मन की बात’ में जन नहीं है




26 अक्टूबर 2015

रविवार को प्रधानमंत्री की ‘मन की बात’ की 13 वीं किस्त खत्म हुई। दो दिन पहले दशहरा गुजरा था और शनिवार को मुहर्रम। देश की जनता को पूरी उम्मीद थी कि मोदी जी देश के समक्ष जो मौजूदा समस्याएं हैं उनपर इस बार जरूर बोलेंगे , लेकिन वे वन डे क्रिकेट मैच से चल कर अंगदान और धनतेरस पर सोने के सिक्के से होते हुए गुजरे और बता गये कि दिवाली के दूसरे दिन लंदन यात्रा पर जा रहे हैं। उन्होंने कुछ सुझावों का भी उल्लेख किया, कुछ लोगों के खतों की कुछ पंक्तियां भी उद्धृत कीं। अगर समाजशास्त्र की भाषा में कहें तो यह सारा प्रयास एक मेस्मेरिक कोशिश थी , देश को जला रहीं समस्याओं के प्रति लोगों की नजरों को बांध देने की। मन की बात के लिए पीएम ने लोगों से सुझाव मांगे थे। उल्‍लेखनीय है कि बिहार के राजनीतिक महागठबंधन ने चुनाव आयोग से बिहार चुनाव तक पीएम के मन की बात कार्यक्रम पर रोक लगाने की मांग की थी, लेकिन चुनाव आयोग ने कुछ शर्तों के साथ मन की बात कार्यक्रम को मंज़ूरी दे दी है। बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने रविवार सुबह ट्वीट करके आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री सामाजिक सौहार्द बिगड़ने, हरियाणा में दलित बच्चों की मौत, दादरी कांड और महंगाई जैसे मुद्दों पर एक भी शब्द नहीं कहे। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री यह कहते रहे हैं कि 'मन की बात' कार्यक्रम उनके लिए लोगों से जुड़ने का मौका है। ‘मन की बात’ अब तक एकतरफा संवाद रहा है। सवाल यह है कि अब वह दोतरफा संवाद वाकई बन पाएगा कि नहीं? अब तक की ‘मन की बातें’ एक ओर से आतीं दूसरी ओर सुनी जाती रही हैं। वे एक ऐसी निर्मित बन चली हैं, जो प्रधानमंत्री से जनता तक पहुंचती हैं। जनता से प्रधानमंत्री तक सीधी पहुंचती नहीं दिखतीं। एक ‘टेलर्ड’ बातचीत लगती हैं। प्रधानमंत्री ने खुद कहा है, पहले भी और रविवार को भी , कि उनके पास सुझाव की हजारों चिट़ियां आती हैं, मेल आते हैं , टेलीफोन आते हैं। क्या पीएम सीना ठोंक कर कह सकते हैं कि उनमें शिकायतें नहीं होतीं। जिस तरह का अपना समाज है, वह ऐसा ‘‘प्रार्थना समाज’ नहीं है, जो सिर्फ सुझाव देता रहेगा और अपनी शिकायत न करेगा, न लिखेगा। अपना समाज तो पहले से ही शिकायती समाज रहा है। यकीन न हो तो सारे संदेशों को प्रकट कर दीजिए, हम सबको मालूम हो जाएगा कि हमारा समाज कितना सुझाववादी है और कितना शिकायतवादी। प्रधानमंत्री जी अपने ‘मन की बात ’ में उन शिकायतों की बात क्यों नहीं करते। वे घृणा फैलाने वालों, असहिष्णु वातावरण बनाने वाले तत्वों की निंदा क्यों नहीं करते ? यह सच है कि हर बात पर मोदी नहीं बोल सकते, लेकिन ऐसा भी नहीं कि उनको इन बातों का पता न हो और उनका मन इनसे विचलित न होता हो। अगर किसी के पास मन है तो ऐसी घटनाओं से विचलित अवश्य होगा। दर्द, करुणा, संवेदना और हमदर्दी ही तो वे भाव हैं, जो ऐसी घटनाएं देखकर पैदा होते हैं। उम्मीद थी कि इस बार की ‘मन की बात’ में माेदी जी की समझ और संवेदना अब तक की उनकी बातों का अतिक्रमण करेगी और रेडियो दोतरफा संवाद का जरिया बन जायेगा। क्योंकि इसमें जनता की बात सत्ता तक पहुंची और सत्ता ने उसपर ‘रिएक्ट’ किया है। यह परिकल्पना विख्यात विशेषज्ञ मार्शल मैक्लूहाम के सिद्धांत से उलट है, जिसमें सोचा जाता है कि जब वक्ता बोला करता है तो श्रोता सिर्फ सुना करता है यानी वक्ता का काम बोलना है, श्रोता का काम सुनना। कभी-कभी जब श्रोता बोलता है तो माध्यम के दूसरी ओर से बोलने वाले को भी सुनना पड़ता है। बढ़ती असहिष्णुता की खबरें समाज की ओर से सत्ता की ओर पहुंचने वाले वे संदेश हैं, जो निजी तौर नहीं लिखे गए, न लिखवाए गए हैं। वे अब समाज में व्याप्त हैं और सत्ता तक सीधे पहुंच रहे हैं। मीडिया में दादरी कांड और फरीदाबाद कांड की खबरों और उठी बहसों ने मोदी के लिए यह सवाल पैदा कर दिया है कि वे समाज की इस व्याकुलता और व्यथा को कितना समझते हैं? पीड़ित समाज के आंसू कितना पोंछते हैं। पर उन्होंने कुछ नहीं कहा। इस बाबत सीधे कुछ न कह कर प्रकारांतर से इन बातों के बारे में कुछ कह सकते थे। वे व्यंजना में कुछ कह सकते थे एक प्रकार के ‘शाश्वत सत्य’ कह कर काम चला सकते थे। एक प्रकार के ‘लीगलिस्टिक वचन’ कह सकते थे। उनसे जनता की ऐसी अपेक्षा नाजायज नहीं थी और नहीं रहेगी। वे देश के प्रधानमंत्री हैं। इसीलिए समाज के एक बड़े हिस्से में उनसे अपेक्षा बढ़ी है कि पीएम कम से कम इस बार दोटूक तरीके से अपनी बात कहेंगे। प्रधानमंत्री ने महंगाई और असहिष्णुता से आक्रांत जनता की आर्त पुकार सुनकर इन घटनाओं से कनेक्ट कर अपनी बात नहीं कही और यह ‘मन की बात’ फकत एकालाप बन कर रह गयी है।


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